उत्तर- सामान्यतया भारतीय दण्ड संहिता का विस्तार केवल उन्ही अपराधों तक है जोकि भारत की सीमा के भीतर कारित किये जाते हैं तथा जो संहिता द्वारा वर्जित है इसे हम संहिता का प्रादेशिक क्षेत्राधिकार भी कह सकते हैं | क्षेत्राधिकार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं --
1- प्रादेशिक क्षेत्राधिकार -- इस क्षेत्राधिकार के अंतर्गत यह संहिता वहाँ लागू होगी जहाँ कोई अपराध परिसीमा के अंदर अथवा बाहर घटित होता है | संहिता किसी भी ऐसे अपराध में लागू होगी जो ---
- (i) भारतीय परिसीमा के भीतर जैसा कि संबिधान के अनुच्छेद 1(B) में परिभाषित है |
- (ii) भारतीय समुद्र से 6 मील तक के क्षेत्र के भीतर; तथा
- (iii) किसी भी जहाज पोत या विमान एयर क्राप्ट जो या तो भारत का हो या भारत में पंजीकृत हो , पर घटित हुआ हो |
प्रादेशिक क्षेत्राधिकार भी दो प्रकार का होता है --
(a) अन्तः प्रादेशिक क्षेत्राधिकार -- अन्तः प्रादेशिक क्षेत्राधिकार वह है जिसमे किसी व्यक्ति द्वारा भारत की सीमा के भीतर अपराध किया जाता है धारा 2 इस क्षेत्राधिकार से सम्बंधित है |
भाव
(b) बहिर्प्रादेशिक क्षेत्राधिकार -- जहाँ किसी भारतीय नागरिक द्वारा भारत की सीमा के बाहर अपराध किया जाता है | ऐसा व्यक्ति भारतीय न्यायालय द्वारा विचारित एवं दण्डित हो सकता है | और ऐसे क्षेत्राधिकार को बहिर्प्रादेशिक क्षेत्राधिकार कहते हैं | संहिता की धारा 3 और धारा 4 बहिर्प्रादेशिक क्षेत्राधिकार से सम्बंधित है |
(2) वैयक्तिक क्षेत्राधिकार - जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा भारतीय सीमा के अंदर कोई अपराध किया जाता है , चाहे वह भारतीय नागरिक हो या विदेशी संहिता ही लागू होगी , क्योंकि जो व्यक्ति अपराध कारित करता है वह अपराध के प्रभाव को भारत की धरती पर उत्पन्न करता है | संहिता की धारा २ ऐसे मामलों से ही सम्बंधित है |
अंतर्क्षेत्रिय अधिकारिता -- अपराध विधि का यह मान्य नियम है कि आपराधिक क्षेत्राधिकार का प्रवर्तन अपराध को करने के स्थान पर निर्भर करता है न किअपराधी की राष्ट्रीयता या उसकी शारीरिक उपस्थिति पर |
संहिता की धारा 2 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति इस संहिता के अनुबंधों के प्रतिकूल प्रत्येक लोक के लिए जिसका वह भारत के भीतर दोषी होगा इस संहिता के अधीन दंडनीय होगा अन्यथा नहीं |
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में वर्णित विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत का इस संहिता में पूर्ण रुप से पालन किया गया है | विदेशी भी इस संहिता के दायित्व से मुक्त नहीं है | इस संबंध में महत्वपूर्ण वाद मुबारक अली बनाम स्टेट ऑफ़ मुंबई ए.आई.आर., 1957 एस.सी. 857 है , इसमें कहा गया है कि जब एक पाकिस्तानी नागरिक ने माल का परिदान करने में अपने सामर्थ्य के संबंध में कपटपूर्ण मिथ्या निरूपण का अपराध किया और छल से मूल्यवान प्रतिफल प्राप्त किया तो उसे अपराधी घोषित किया जाना चाहिए | दंड संहिता के अंतर्गत उसे दंड दिया जाना चाहिए ।
शब्द प्रत्येक व्यक्ति का आशय बिना किसी मर्यादा के और नागरिकता, निष्ठा, पदवी, स्थिति या हैसियत, जाति, रंग या मन का विचार किए बिना सभी व्यक्तियों के लिए है | इस अधिनियम में भारत शब्द का तात्पर्य जम्मू कश्मीर राज्य को छोड़कर समस्त भारत से है ।
संहिता की धारा 2- कोई समय सीमा निर्धारित नहीं करती है जिसके अंदर अभियोजन आरंभ कर देना चाहिए | यह "Nullum tempus occurit regi" के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ है समय का बीत जाना सम्राट के अधिकार को नष्ट नहीं करता ।
सामान्यतया भारतीय दंड संहिता के उपबंध प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होते हैं, परंतु निम्नलिखित व्यक्ति प्रत्येक राष्ट्र में दंड न्यायालयों की अधिकारिता से परे रखे गए हैं और संहिता के उपबंध इन व्यक्तियों पर लागू नहीं होंगे ---
(1) राष्ट्रपति तथा राज्यपाल -- भारत का राष्ट्रपति तथा राज्यों के राज्यपाल संहिता के क्षेत्राधिकार से उन्मुक्त हैं | भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 यह उपबंधित करता है कि किसी भी न्यायालय में कोई भी आपराधिक प्रक्रिया ना तो राष्ट्रपति के विरुद्ध और ना ही किसी राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान ना तो दाखिल की जा सकती है और ना ही उसे निरंतरित रखा जा सकता है | सन 1975 में किए गए 40वें संवैधानिक संशोधन द्वारा इस उन्मुक्ति में प्रधानमंत्री को भी सम्मिलित कर दिया गया है ।
(2) विदेशी सम्राट-- किसी भी विदेशी सम्राट को इस संहिता के अंतर्गत दंडित नहीं किया जा सकता | यह अंतर्राष्ट्रीय विधि का एक प्रस्थापित नियम है | यह मुक्ति उनको प्रदत्त विशिष्ट अधिकारों एवं उन्मुक्तियों के अंतर्गत दी गई है | अंतर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार यह सद्भावना एवं पारस्परिकता के सिद्धांतों पर आधारित है ।
(3) राजदूत एवं राजनयिक अभिकर्ता -- राजदूत एवं राजनयिक अभिकर्ता एक स्वतंत्र संप्रभु राजा या राज्य के प्रतिनिधि होते हैं अतः उन्हें भी दंड संहिता के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है | यह मुक्ति उनको प्रदत्त विशेषाधिकारों एवं उन्मुक्तियों के अंतर्गत प्रदान की गई है | यदि कोई भी राजदूत या राजनयिक अभिकर्ता किसी भी प्रकार का घोर अपराध करता है तो उसे उस संप्रभु राजा या राज्य के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता है | यह मुक्ति सिर्फ राजदूतों एवं राजनयिक अभिकर्ताओं को ही नहीं अपितु उनके परिवारजनों एवं सेवकों को भी प्रदान की गई है ।
(4) विदेशी सेना - यदि किसी विदेशी राज्य की सेनाएं भारत की धरती पर भारत सरकार की सहमति से विद्यमान है तो वह स्थानीय आपराधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार से उन्मुक्त हैं | यह एक दृढ़ अंतरराष्ट्रीय प्रथा है ।
(5) विदेशी शत्रु - विदेशी शत्रुओं पर दंड संहिता के अंतर्गत प्रकरण नहीं चलाया जा सकता क्योंकि उन पर युद्ध के नियमों के अनुसार सैनिक न्यायालयों में प्रकरण चलाया जाता है, लेकिन यदि कोई विदेशी ऐसा कोई अपराध कारित करता है जो युद्ध से संबंधित नहीं है तो वह सामान्य दंड न्यायालयों द्वारा दंडित किया जा सकेगा ।
(6) युद्ध के अपराध-- अंतर्राष्ट्रीय विधि के सिद्धांतों के अनुसार युद्धापराधियों को भी दंड संहिता के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है ।
(7) युद्धपोत- किसी राज्य के सैनिक जो विदेशी जल में होते हैं, तो वह उस देश के क्षेत्राधिकार से उन्मुक्त होते हैं जिसके जल में होते हैं प्रादेशिक जल में उपस्थित पोतों के संबंध में दो सिद्धांत हैं --- किसी देश का सार्वजनिक पोत सभी उद्देश्यों हेतु उस देश का जिसका वह पोत है, का क्षेत्र है या मानना चाहिए तथा सार्वजनिक पोत विदेशी जल में ना तो जहाज के देश का क्षेत्र है और ना ही ऐसा माना जाए जाना चाहिए | ऐसे युद्धपोत का राष्ट्र उन उन्मुक्तियों का अभित्याग करके इन्हें देश के सामान्य न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अधीन समर्पित कर सकता है | किसी भी विदेशी राज्य का युद्धपोत भारतीय जल में केवल भारत सरकार की आज्ञा से ही प्रवेश कर सकता है ।
(8) निगम निगम- निगम शब्द को संहिता की धारा 11 में परिभाषित किया गया है | इसमें सम्मिलित है- एक कंपनी या संस्था, व्यक्तियों का निकाय चाहे निगमित हो या नहीं | परंतु धारा 2 में प्रत्येक व्यक्ति का अर्थ है-- एक प्राकृतिक व्यक्ति और इसमें न्यायिक व्यक्ति जैसे निगम को सम्मिलित नहीं किया गया है | यदि किसी निगम द्वारा कोई अपराध होता है तो माना जाएगा कि निगम के उन सदस्यों ने ही उसे किया है जिन्होंने कार्य में भाग लिया था ।
0 टिप्पणियाँ