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प्रश्न -- अपराध क्या है ? इसके आवश्यक तत्व क्या हैं ?

उत्तर -- प्रत्येक व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में स्वतंत्र एवं स्वच्छंद रहना चाहता है । वह उसमें किसी अन्य व्यक्ति का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता । इसी प्रकार प्रत्येक सामाजिक मनुष्य का यह सामाजिक कर्तव्य होता है कि वह किसी अन्य व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, साम्पत्तिक या प्रतिष्ठा संबंधित कार्यकलापों पर अनुचित हस्तक्षेप ना करें । यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार कर्तव्य भंग करता है तो उसे हम अपराध की संज्ञा दे सकते हैं ।




अपराध की परिभाषाएं - अभी तक कोई भी विधिशास्त्री 'अपराध' शब्द की सर्वसम्मत परिभाषा नही दे पाया है । अपराध की कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं -

स्टीफेन के अनुसार -- अपराध से अभिप्राय ऐसे अधिकारों के अतिक्रमण से हैं जिन का परिमाप उस अतिक्रमण से संबंधित समाज में फैली हुई दुष्कृतियों से हो ।
मिलर के अनुसार -  अपराध वे कृत या अकृत उल्लंघन कार्य हैं जिनको कि विधि समादेशित अथवा निर्देशित करती है और उन उल्लंघनों को सरकार अपने नाम से कार्यवाही करके दंडित करती है ।

ब्लैक स्टोन के अनुसार - ऐसा कोई कार्य करना अथवा करने से विरत रहना जिससे सामान्य विधि के किसी नियम का अतिक्रमण होता हो, अपराध कहलाता है ।

ब्लैक स्टोन ने ही इसकी एक और परिभाषा दी है अपराध का अर्थ है ऐसे लोग अधिकारों तथा कर्तव्यों का उल्लंघन करना जो संपूर्ण समाज अथवा समुदाय को एक समाज अथवा समुदाय के रूप में प्राप्त है ।

ऑस्टिन के अनुसार - अपराध वे अवैधानिक कार्य हैं जिनके साबित हो जाने पर न्यायालय अपराधियों को दंड देता है और ऐसे दंड में कमी करने का एकमात्र अधिकार राज्य को होता है ।

अपराध के तत्व - किसी भी कार्य को अपराध की श्रेणी में आने के लिए कुछ आवश्यक अपेक्षाओं की पूर्ति करनी होती है जिन्हें हम अपराध के तत्व कहते हैं आंग्ल विधि के अधीन कुछ ऐसे विधिक आवश्यकताएं होती हैं जिन्हें प्रत्येक अपराध में समाविष्ट होना आवश्यक होता है परंतु भारतीय विधि में अपराध के ऐसे तत्वों का अलग से कहीं उल्लेख नहीं किया गया है । हमारे यहां प्रायः प्रत्येक अपराध के आवश्यक तत्वों का उल्लेख अपराध की परिभाषा में ही कर दिया गया है परंतु फिर भी हम अपराध के आवश्यक तत्वों के रूप में निम्नलिखित तत्वों को स्वीकार करते हैं ।

(1) कार्य अथवा कार्य लोप -- अपराध के घटित होने के लिए प्रथम आवश्यक तत्व है कि कोई विधि द्वारा वर्जित कार्य किया गया हो अथवा विधि द्वारा अपेक्षित किसी कार्य का लोप किया गया हो ।

उदाहरण के लिए - कारागार में बंदी को खाना खिलाना उसके रक्षकों का विधिक दायित्व होता है और यदि कोई रक्षक उसको खाना नहीं देता है और ना ही किसी अन्य को उसे खाना देने देता है और परिणामस्वरूप भूखे रहने से उस बन्द की मृत्यु हो जाती है तो वह रक्षक उसकी हत्या करने के लिए दायित्वाधीन माना जाएगा ।

(2) सक्षमता -- अपराध का दूसरा आवश्यक तत्व अपराधी व्यक्ति अपराध कार्य करने के लिए विधिक रूप में सक्षम होना चाहिए संहिता के अंतर्गत 7 वर्ष से कम आयु के शिशुओं को पूर्ण रूप से अपराध कारित करने में असक्षम माना गया है । इसी प्रकार संहिता के चौथे अध्याय में ऐसे कई अपवादों का उल्लेख किया गया है जो अपराध की श्रेणी में नहीं आते । जैसे विकृत चित्त या मत्तत व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य, सद्भावना से किया गया कार्य, तथ्य की भूल के अधीन किया गया कार्य इत्यादि ।

(3) जानकारी अथवा स्वेच्छा --  ' जानकारी अथवा स्वेक्षा ' भी अपराध का एक महत्वपूर्ण तत्व हो सकता है यदि ऐसा सिद्ध किया जाना उस अपराध के लिए आवश्यक हो ।
(4) दुराशय -- अपराधिक मन:दोष अथवा दुराशाय को एक महत्वपूर्ण आपराधिक के तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है जो दुरशय के बिना कोई भी कार्य अपराध नहीं बनता इस सूत्र पर आधारित है -- "Actus non facit reum nisi men's sit rea." इसका अभिप्राय है -- आशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता ।

भारतीय विधि में चूंकि प्रत्येक अपराध के साथ ही उसके आवश्यक तत्वों का उल्लेख कर दिया गया है अतः दुराशय को पृथक से एक तत्व के रूप में निरूपित नहीं किया गया है ।  इसे विभिन्न अपराधों की परिभाषाओं में 'स्वेक्षा',  'साशय', कपटपूर्वक', बेईमानी से आदि शब्दों के रूप में प्रयोग या समाविष्ट किया गया है ।

(5) मानव-  अपराध के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई कार्य या लोप किसी मानव ने किया हो । प्रारंभ में पशुओं को भी अपराध कारित करने के लिए दंड या मृत्यु दंड दिया जाता था, परंतु वर्तमान में यदि किसी पशु द्वारा कोई अपराधिक कार्य किया जाता है तो उसके लिए भी उसके मालिक को ही उत्तरदायी माना जाता है ।

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