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प्रश्न - दुराशय से आप क्या समझते हैं ? दुराशय के सिद्धांत तथा इसके अपराधों की विवेचना कीजिए ? भारतीय दंड संहिता में दुराशय के सिद्धांत को किस प्रकार प्रवर्तित किया गया है ?

उत्तर - यदि कोई अपराध स्वेच्छा पूर्वक या पूर्व चिंतन के अनुरूप किया जाता है तो उसे सामान्यतया निम्नलिखित 4 अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है ।
(1) आशय
(2) तैयारी 
(3) प्रयास तथा 
(4) अपराध की पूर्णता
   अपराध की चारों अवस्थाओं का अध्ययन करने से हमें निम्नलिखित आवश्यक तत्वों का ज्ञान होता है, हालांकि भारतीय विधि में प्रत्येक अपराध के आवश्यक तत्वों का विवेचन उसकी परिभाषा में किया गया है । अपराध की आवश्यक शर्तें ------

1- कोई कार्य अथवा कार्य लोप किया गया हो;
2- ऐसे कार्य के लिए सक्षम होना;
3- ऐसे कार्य का जानबूझकर अथवा स्वेच्छा से किया जाना ।
4- कार्य का ध्येय, आशय अथवा स्वेच्छा से किया जाना ;
5- ऐसे कार्य से किसी व्यक्ति अथवा जनसाधारण को हानि कारित होना; एवं
6- ऐसे कार्य का विधि द्वारा दंडनीय होना ।

भारतीय विधि के अंतर्गत आपराधिक भावना का बहुत महत्व है । सामान्यतया यदि कोई अपराध दुराशय के बिना अर्थात सद्भावना से किया गया हो तो अपराध की सभी अन्य आवश्यक तत्वों के होने पर भी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाता है  । अतः अपराधिक भावना अथवा दुराशय का पूर्ण विवेचन निम्नलिखित है --

             प्रारंभ में दंड के निर्धारण हेतु आपराधिक भावना का कोई महत्व नहीं था । व्यक्ति का कार्य ही उसकी मन:स्थिति मान लिया जाता था परंतु धीरे-धीरे इस धारणा में परिवर्तन होने लगा और कालांतर में अभियुक्त को अपराधिक भावना के अभाव में अभी मुक्ति भी प्रदान की जाने लगी ।

          प्राकृतिक न्याय की यह उक्ति हैं "Actus non facit reum nisi mens sit rea." जिससे अभिप्राय है कि "आशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता ।" यही वह सूत्र है जिस पर संपूर्ण दांडिक विधिशास्त्र आधारित है इसके अनुसार, "कोई कार्य कोई कार्य किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं बना देता जब तक कि उसका ऐसा आशय नहीं रहा हो ।" 
               आपराधिक भावना का स्पष्ट अर्थ बताने में अनेक विधिशास्त्रियों ने अपने आप को असमर्थ ही पाया है । आर. बनाम टालसन, 1889 Q.B.D.168 के मामले में न्यायमूर्ति स्टीफेन ने तो यहां तक कह दिया था कि आपराधिक मन:स्थिति की अभिव्यक्ति अर्थहीन है उनका अभिमत था कि यद्यपि यह सूत्र सामान्य प्रयोग में है, परंतु यह वास्तव में भ्रामक हैं, क्योंकि स्वाभाविक रूप से यह सूत्र यह प्रदर्शित करता है कि अपराधों की समस्त विशिष्ट परिभाषाओं से परे अपराधिक मन:स्थिति अथवा दोषी मन जैसी एक बात इन परिभाषाओं में या तो अभिव्यक्त रूप से अथवा विवक्षित तौर पर सदैव विद्यमान रहती है परंतु यह सत्य नहीं है, क्योंकि विभिन्न अपराधों आपराधिक तत्व व्यापकत: एक दूसरे से भिन्न होते हैं । कुछ भी हो यदि हम आपराधिक विधि संबंधी इतिहास का अवलोकन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आपराधिक विधि में इस शब्द का अत्यंत महत्व है ।

आपराधिक मन:स्थिति के अपवाद --- निम्नलिखित अपवाद आपरधिक भावना के सिद्धांत के अपवाद स्वरूप हैं | जिनमें आपराधिक कार्य के लिए आपराधिक भावना का होना आवश्यक नही है -
  1. सार्वजानिक अपदूषण करने में कृत्य करने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क में आपराधिक आशय का होना आवश्यक नही है अर्थात वह इस आधार पर सार्वजानिक अपदूषण के अपराध के दायित्व से इस आधार पर नहीं बच सकता कि अपदूषण करने में उसका कोई आपराधिक आशय नही था | 
  2. ऐसे कृत्य या भूल जो उचित रूप में अर्ध नहीं है , किन्तु लोकहित के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए  जिनका करना विधि द्वारा निषिद्ध है उनमें आपराधिक मन:स्थिति का अपराध गठित होने के लिए उपस्थित होना आवश्यक नही है |
  3. ऐसे अपराधों में जिनमे प्रतिनिधि दायित्व का सिद्धांत लागू होता है, में भी आपराधिक मन:स्थिति का होना आवश्यक नहीं है |
  4. ऐसे मामले जिनका स्वरुप तो आपराधिक हो, परन्तु वास्तव में वो दीवानी विधि से सम्बंधित में हों में भी आपराधिक भावना का होना आवश्यक नही है |
  5. अधिनियम जब तक स्पष्तः या विवक्षित रूप में एक अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में मन: स्थिति को अस्वीकार नहीं कर देता | प्रतिवादी को किसी अपराध के लिए दोषी नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि उसका मस्तिष्क दूषित न हो |
  6. फोरिन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट, 1948 की धारा 8 तथा धारा 23 के अंतर्गत अपराध के होने के लिए वास्तविक ज्ञान की कृत्य विधि विरुद्ध है, ऐसा दुराशय होना आवश्यक नहीं है |
       आपराधिक मन: स्थिति का भारत में प्रवर्तन -- दुराशय दाण्डिक विधि का एक आवश्यक तत्व होते हुए भी भारतीय दण्ड संहिता में इसका कही भी उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन इसका अभिप्राय यह है कि संहिता में इसे अपराध का तत्व नहीं माना गया है | 'आपराधिक भावना' शब्द का संहिता में कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है, परन्तु इसके सिद्धांत को दो भिन्न तरीकों से लागू किया गया है --
  1. साधारण अपवादों वाले अध्याय में जो न केवल भारतीय दण्ड संहिता में परिभाषित अपराधों पर लागू होता है वरन विशेष और स्थानीय विधियों में परिभाषित अपराधों पर लागू होता है | उन् साधारण दशाओं में सम व्यवहार किया गया है जो आपराधिक मन:स्थिति को नकारती है और तदनुसार आपराधिक दायित्व का अपवर्जन करती है |
  2. भारतीय दण्ड संहिता के अधीन प्रत्येक अपराध को सावधानी के साथ परिभाषित किया गया है ताकि उसमें अपराध के आवश्यक तत्व दुराशय को सम्मिलित किया जा सके | संहिता में दुराशय शब्द के स्थान पर शब्द स्वेच्छा पूर्वक, 'आशय पूर्वक', 'कपट पूर्वक', 'बेईमानी पूर्वक', 'भ्रष्ट रूप' से, ' द्वेषभाव से , लम्पटता से , आदि का प्रयोग किया गया है | इस प्रकार इन पदावालियों के प्रयोग से भारतीय दण्ड संहिता में सकारात्मक रूप अपराध के मानसिक तत्व के सिद्धांत को स्थान प्रदान किया गया है |
संहिता में कुछ धाराएँ ऐसी हैं जिनमें दुराशय को प्रकट करने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है ---
  1. कुछ कृत्य तथा उनके परिणाम पूरे समाज तथा राज्य के लिए इतने हानिकारक हैं कि उनको कारित करने के आशय के अभाव में भी दण्ड देना उचित समझा गया जैसे- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना, राजद्रोह, और व्यपहरण एवं अपरहरण आदि |
  2. जहाँ कृत्य अपने आप में इस प्रकार है जिससे एक प्रबल विश्वास उत्पन्न होता है कि जिसने कार्य कीइच्छा की थी उसने उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोंचा होगा जैसे- सिक्कों एवं स्टाम्पों का कूटकरण |

आपराधिक विधि (एलएलबी, प्रथम सेमेस्टर) - RMLAU Ayodhya

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