हमारे संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रूचि के अनुकूल व्यापार ,व्यवसाय, वृत्ति या कारोबार करने का मूलभूत अधिकार प्रदान किया गया है | यह लोकनीति के भी अनुकूल है | लोकनिति की यह अपेक्षा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्य करने के लिए स्वतंत्रता होनी चाहिए , लेकिन इस बात की छूट नही होनी चाहिए कि वह किसी करार के द्वारा किसी व्यक्ति को उसके परिश्रम ,कौशल अथवा निपुणता से प्राप्त होने वाले लाभों से वंचित करे |
यही कारण है कि संविदा अधिनियम की धारा 27 में भी व्यापार में अवरोध पैदा करने वाले करारों के शिवाय कतिपय अपवादों के शून्य एवं लोक नीति के विरुद्ध मानने का एक मुख्य कारण व्यापार में एकाधिकार की प्रवृत्ति को रोकना भी है |
धारा 27 में की गई व्यवस्था इस प्रकार है - "हर करार जिससे कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति ,व्यापार या कारोबार से अवरुद्ध किया जाता हो उस विस्तार तक शून्य है |"
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि अवरोध व्यापार की स्वतंत्रता के लिए युक्तियुक्त एवं आवश्यक है तो ऐसा करार शून्य नहीं होगा | [(1967) 1 एल ० एल ० जे ० 117] अवरोध की युक्तियुक्तता का परीक्षण प्रत्येक व्यापार की प्रकृति के आधार पर किया जायेगा |
इस सम्बन्ध में नार्दनफेल्ट बनाम मेक्सिम नार्दन फेल्ट गन कंपनी, (1894) ए ० सी ० 535 का एक महत्त्वपूर्ण मामला है | इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि व्यापार में अवरोध पैदा करने वाले करारों को शून्य घोषित किये जाने से पूर्व अवरोध की युक्तियुक्तता का परीक्षण कर लिया जाना चाहिए कि जनहित में युक्ति युक्त है या नहीं |
यदि दो पडोसी भूस्वामी यह करार करते है कि वे दोनों अपने भूमियों पर एक ही दिन पशुओ के विक्रय का बाजार नहीं लगायेंगे तो इस करार को शून्य नहीं माना जायेगा , क्योंकि यह दोनों के हित में है | धारा 27 एक अपवाद है | यदि विक्रेता कारोबार की गूडविल क्रेता को बेंच देता है तो वह उसके साथ इस आशय का करार कर सकेगा कि विक्रेता एक विनिश्चित समय तक एवं विनिर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं के अन्दर ऐसा कोई कारोबार करने से विरत रहेगा जैसा कि क्रेता का कारोबार है |
इस अपवाद की प्रयोज्यता के लिए चार बातें अपेक्षित हैं--
(1) व्यापार एक जैसा हो ;
(2) विनिर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं में हो ;
(3)क्रेता अथवा उसका प्रतिनिधि एसा व्यापार या कारोबार चलाता हो ; एवं
(4) न्यायालय की राय में अवरोध युक्तियुक्त हो |
युक्तियुक्तता का परिक्षण पक्षकार एवं लोकहित के आधार पर किया जायेगा |
व्यापारिक प्रतिस्पर्धा रोकने अथवा बाजार पर एकाधिकार स्थापित करने का प्रयत्न लोक - हित को क्षतिकारित करने वाला होने के कारण युक्तियुक्त नहीं माना गया है |
सुरेश धानूका बनाम सुनीता महापात्र (ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 892 ) के मामले में ऐसे व्यापार -चिन्ह के उपयोग को रोकने हेतु व्यादेश जारी किये जाने को व्यापार में अवरोध नहीं माना गया है जो विवाद की विषय वस्तु है |
न्यायिक निर्वाचन द्वारा स्वविकृत अपवाद --सेवा सम्बन्धी करारों में यह अवरोध कि सेवाकाल के दौरान सेवा मालिक के कारबार से मिलता -जुलता कारबार नहीं करेगा या वह अन्य किसी मालिक की सेवाओ को स्वीकार नहीं करेगा , इस धारा की परिधि में नहीं आता | न्यायालय ऐसे करार के अनुपालन का आदेश दे सकेगा |
देशपांडे बनाम अरविन्द मिल्स ,ए० ई० आर० 1949 बाम्बे 423 के मामले में एक कर्मचारी ने बुनाई मास्टर के रूप में तीन वर्ष तक कार्य करने की संविदा की | करार में यह भी उपबंध था कि इस बीच भारत में कही और सेवा नहीं करेगा | न्यायालय ने इस शर्त को सही ठहराया |
2.व्यापारिक समुच्चय--ये ऐसे करार होते है जिसमे निर्माता अपनी वस्तुओ को एक निश्चित मूल्य के नीचे नहीं बचेंगे ऐसे करार शून्य नहीं होते है | परन्तु यदि कोई व्यापारिक समुच्चय पक्षकारों के पारिस्थतिक हितो के लिए नहीं होता बल्कि एकाधिकार उत्पन्न करता है तो उसे शून्य घोषित किया जा सकता है यदि निर्माता करार करता है कि वह अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओ को किसी विशिष्ट व्यक्ति को ही विक्रय करेगा तो ऐसा करार शून्य नहीं होगा |
मेसर्स गुजरात बाटलिंग कं० बनाम कोकाकोला कंपनी , ए० ० आर० 1995 एस० सी० 2372 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ अवरोध संविदा की अवधि तक सीमित होता है व्यापार अवरोध का सिद्धांत लागू नहीं होता है परन्तु समय के बाद तक चलता रहता है तो वह शून्य होगा तथा वहां यह सिद्धांत लागू नहीं होगा |
Source: CLA, LL.B. 3 Year Programme, 1st Semester, 1st Paper
LAW OF CONTRACT - I
Dr. RMALU Ayodhya
Dr. Ram Manohar Lohiya Awadh University, Ayodhya
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