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प्रश्न - अवयस्क के करार प्रारम्भतः शून्य होते हैं | निर्णीत वादों की सहायता से समझाइए |


         अवयस्क के करार (Minor's Agreement) -  संविदा करने के लिए किसी व्यक्ति की प्रथम सक्षमता उसका प्राप्तवय अर्थात वयस्क होना है | प्राप्तवयता या वयस्कता का अभिनिश्चय उस व्यक्ति के अधिवास की विधि द्वारा किया जाता है |

minors agreement

भारत में वयस्कता के समबन्ध में मुख्यतया दो प्रकार की विधियाँ हैं --

(1) सामान्यतः संविदा करने के प्रयोजन के लिए सभी व्यक्तियों  पर भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 की धारा 3 लागू होती है | धारा 3 के अनुसार ऐसे व्यक्ति का अठारह वर्ष की आयु पूरी कर लेना आवश्यक है | यदि कोई  व्यक्ति अठारह वर्ष से एक दिन भी छोटा है अर्थात , उसके अठारह वर्ष पूरे होने में एक दिन भी शेष है तो उसे विधि में अप्राप्तवय अथार्त, अवयस्क माना जायगा |

(2) जहां न्यायालय द्वारा किसी अवयस्क का संरक्षक नियुक्त किया जाता है, वहाँ ऐसा व्यक्ति जब तक इक्कीस वर्ष की आयु पूरी नहीं कर लेता है, अवयस्क बना रहता है |

        अवयस्क द्वारा किये गये करारों का प्रभाव - अप्राप्तवय  व्यक्ति संविदा के लिए अयोग्य होता है अतः ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला करार आरम्भत; शून्य [void -ab-initio] होता है, शून्यकरणीय  नही | विधि की दृष्टि में ऐसे करार शून्य करार माने जाते है| यहाँ तक की वह अपनी ओर से संविदा करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति को प्राधिकृत भी नही कर सकता है |

महत्वपूर्ण मामले -
1. मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष (1903) 30 कलकत्ता 530 का मामला - यह इस सम्बन्ध में अब तक का एक प्राकृतिक मामला है | इसमे बीस वर्ष की आयु के एक व्यक्ति ने , जिसके लिए न्यायालय ने संरक्षक एवं प्रतिपाल्य नियुक्त कर रखा था, एक साहूकार के पक्ष में 20, 000 रूपये के लिए एक बन्धक विलेख निष्पादित कर दिया |साहूकार द्वारा वस्तुतः उसे 8, 000 रूपये ही दिये गये थे इस संव्यवहार के कुछ ही समय पूर्व संरक्षक द्वारा साहूकार को बन्धककर्ता  के अवयस्क होने की सूचना दे दी गई थी | अवयस्क की ओर से बन्धक को अपास्त [set- aside ] करने के लिए वाद लाया गया जिसका यह कह कर विरोध किया गया कि यह एक शून्यकरणीय संविदा होने से अवयस्क द्वारा उधार ली गई धनराशि को धारा 64 के अधीन वापस लौटाया जाना चाहिये | प्रिवी काउंसिल ने अभिनिर्धारित किया की यह करार पूर्ण रूप से शून्य है | अतः उधार लिये गये धन को वापस लौटाने का प्रश्न ही नही है |
2- राजरानी बनाम प्रेम अदीव, 51 बम्बई एल० आर० 255 का मामला - इसमें एक फिल्म - निर्माता तथा एक अवयस्क लड़की के बीच एक करार किया गया था, जिसके अनुसार एक फिल्म में लड़की को अभिनय करना था | इसी अर्थ की एक अलग संविदा फिल्म निर्माता ने उस अवयस्क लड़की के पिता के साथ भी की | परन्तु फिल्म  निर्माता ने अपने वचन का अनुपालन नही किया |अवयस्क लड़की ने अपने पिता के माध्यम से उस फिल्म निर्माता के विरुद्ध एक वाद संस्थित किया | न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि दोनों करार अप्रवर्तनीय थे |

                    अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन तथा उसका प्रभाव - अवयस्क की संविदा प्रारम्भत: शून्य होती है, अतः यदि अवयस्क द्वारा किसी से भी कपटपूर्ण तरीके से कोई संविदा की जाती है तो भी वह संविदा प्रवर्तनीय नही है | मोहरी बीबी के  मामले में उक्त सिद्धान्त को स्वीकृति दी गयी है |
        
    प्रस्थापना का सिद्धांत - अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन द्वारा किसी वस्तु को प्राप्त कर लिया जाता है तो उससे उन वस्तुओं को वापस करने को बाध्य करने के सिद्धांत को प्रत्यास्थापना का सिद्धांत कहते हैं |

    लेजली बनाम शील (1914) 3 KB 607 के वाद में निर्धारित किया गया कि यदि अवयस्क ने मिथ्या व्यपदेशन के द्वारा कोई संपत्ति प्राप्त की है और उसे पहचाना जा सकता है तो उसे उस संपत्ति को लौटने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा |
        अयोध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल AIR 1937 AD 610 के वाद में उक्त सिद्धांत को सही बताते हुए इस सिद्धांत को भारत में भी लागू किया गया |

        अनुसमर्थन (Ratification) - अवयस्क द्वारा की गयी संविदा प्रारम्भ्तः शून्य होता है अत: वयस्क हो जाने के बाद भी वह व्यक्ति उसका अनुसमर्थन नहीं कर सकता है | परन्तु यदि अवयस्क द्वारा कोई संव्यवहार उसकी अवयस्कता में अपूर्ण रह जाता है तथा उसे वयस्क होने पर पूर्ण करता है तो वह पूरे संव्यवहार के लिए उत्तरदायी होगा |

        अवयस्क को संदाय की गई आवश्यक वस्तुएं - धारा 68 के अनुसार - यदि किसी अवयस्क को आवश्यक वस्तुएं प्रदान की गयी वस्तुओं की भरपाई के लिए धन व्यवस्था उसकी संपत्ति से की जा सकती है | परन्तु उसका इस सब के लिए व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है |

        भागीदारी करार (Partnership Agreement) - किसी भागीदारी फर्म में अवयस्क व्यक्ति को पूर्ण रूप से भागीदार बनाने का करार अविधिमान्य माना गया है | 

भागीदारी फर्म में केवल लाभ के लिए किसी अवयस्क को भागीदार बनाया जा सकता है | (धारा 30, भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 ) |

Source: CLA, LLB. 3 Year Programme, 1st Semester, 1st Paper

Paper- LAW OF CONTRACT - I

Dr. Ram Manohar Lohiya Awadh University Ayodhya
Dr. RMLAU Ayodhya

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