विवाह के अवरोधार्थ करार शून्य है
(Agreement in restraint of marriage are void)
प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपना जीवन साथी चुने और उससे विवाह करे | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि --
(i) प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करने का अधिकार है; एवं
(ii) ऐसे व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार है , जिसे वह पसंद करे |
उसके इस अधिकार में किसी प्रकार का अवरोध पैदा नहीं किया जा सकता और यदि किया जाता है तो ऐसा करार शून्य होता है |
उदाहरणार्थ- किसी वयस्क लड़की द्वारा अपनी इच्छानुसार किसी लड़के से विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाने वाला करार शून्य है |
धारा 26 में इस सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है | इसका मूल पाठ इस प्रकार है -
"ऐसा हर करार शून्य है जो अप्राप्तवय से भिन्न किसी व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ हो"
("Every agreement in restraint of the marriage of any person, other than a minor, is void")
सिद्धांत- जिस सिद्धांत पर यह व्यवस्था की गयी है, उसका सुन्दर विवेचन लॉन बनाम पियर्स, एलo आरo 9 एक्सo 354 के एक इंग्लिश वाद में किया गया है | इसमें कहा गया है कि- "विवाह एवं वैवाहिक हैसियत प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है | यह लोकनीति के सर्वोत्तम हित में है |"
धारा 26 एक सामान्य नियम का प्रतिपादन करती है | यहाँ यह संदिग्ध है कि क्या विवाह में आंशिक अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अवरोध पैदा करने वाले करार भी इस धारा की परिधि में आते हैं |
इस सम्बन्ध में इंग्लिश विधि एवं भारतीय विधि में अंतर है | इंग्लिश विधि में विवाह में आंशिक अवरोध पैदा करने वाले करारों को विधिमान्य माना गया है, जबकि भारतीय विधि में अवरोध मात्र को , चाहे वह आंशिक हो या पूर्ण, अवैध माना गया है | लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विवाह में अवरोध पैदा करना पुनर्विवाह में अवरोध पैदा करने से एकदम भिन्न है |
विधिक कार्यवाहियों के अवरोधार्थ करार
(Agreement in restraint of Legal Proceeding)
संविदा अधिनियम की धारा 28 के अनुसार - "प्रत्येक करार जिससे कि उसमें का कोई पक्षकार किसी संविदा के अधीन या बारे में अपने अधिकारों को मामूली अभिकरणों में प्रायिक वैध कार्यवाहियों द्वारा अनुपालन कराने में सम्पूर्णरूपेण अवरुद्ध है तो वह उस विस्तार तक शून्य है |"
इस धारा में 1996 में संशोधन किया गया जो कि 8 जनवरी, 1997 से लागू हुआ | इसके अनुसार "प्रत्येक करार जो उसके अधिकारों को समाप्त कर देता है या किसी संविदा के अधीन या बारे में विनिर्दिष्ट समय तक किसी पक्षकार को अपने दायित्व के निर्वहन से उल्लेखित कर देता है ताकि अपने अधिकारों के प्रवर्तन से प्रतिबंधित किया जा सके , उस विस्तार तक शून्य होगा |"
धारा 28 उन करारों पर लागू होती है जो सम्पूर्ण या आंशिक रूप से पक्षकारों के न्यायालय की शरण लेने से वर्जित करते हैं | परन्तु यदि प्रतिफल वैध तथा करार अन्यथा विश है तो पक्षकारों के मध्य यह करार कि वे डिक्री के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील नहीं करेंगे विश तथा बन्धनकारी करार होगा |
बृजेश कुमार सूद बनाम ब्रिगेo केo केo सूद, (एo आईo आरo 2012 एनo ओo सीo 321 हिमाचल प्रदेश ) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भूमिस्वामी को अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत उपचार प्राप्त करने से रोकने वाला करार विधिक पवित्रता रहित होने से अनदेखा किये जाने योग्य है |
अपवाद
1- जो विवाद पैदा हो , उन्हें विवाचन के लिए सौपने के लिए संविदा - यदि पक्षकार अपने बीच उत्पन्न होने वाले विवाद को मध्यस्थ द्वारा अभिनिर्णीत करने का करार करते हैं तो ऐसे करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय तथा विधिमान्य होंगे | परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि ऐसा करार न्यायालय की अधिकारिता को न छीनता हो और न ही कम करता हो |
2- जो प्रश्न पहले ही पैदा हो गए हों उन्हें निर्देशित करने की संविदा - ऐसे करार भी वैध होंगे जिनमें कि दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी प्रश्न को, जो उनके बीच पैदा हो गया है, विवाचन निर्णय के लिए निर्देशित करने का करार करते हैं |
Source: CLA, LLB 3 Year , 1st Semester, 1st Paper
LAW OF CONTRACT - I
Dr. Ram Manohar Lohiya Awadh University, Ayodhya
Dr. RMLAU Ayodhya
0 टिप्पणियाँ