विधि का यह एक सामान्य नियम है कि जहाँ किसी संविदा में उसके पालन का समय विनिर्दिष्ट नही हो, वहां उसका पालन युक्तियुक्त समय में किया जाना चाहिये और जहाँ पालन का समय विनिर्दिष्ट हो, वहां उस समय पर या उसके पूर्व संविदा का पालन किया जाना चाहिये |
इस प्रकार सामान्यतय: समय का संविदा में एक विशिष्ट महत्व होता है | लेकिन कुछ संविदाएं ऐसी भी हो सकती है | जिसमें समय मर्मभूत नही होता है | इन दोनों ही अवस्थाओं का उलेख अधिनियम की धारा 55 में किया है |
1- जब समय संविदा का मर्म हो (when time is the essence of contract )- जहाँ किसी संविदा के पक्षकारों का आशय रहा हो कि समय संविदा का मर्म था तो एक पक्षकार के अपने वचन के विनिर्दिष्ट समय के भीतर पालन करने में असफल रहने पर संविदा दूसरे पक्षकार के विकल्प पर शून्यकरणीय हो जाती है |
किसी संविदा में विनिर्दिष्ट समय उस संविदा का मर्म था या नही, एक तथ्य का प्रश्न है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्तिथियों पर निर्भर करता है | साथ ही यह एक ऐसा प्रश्न भी है जो संविदा के निबंधनो एवं उसके पक्षकारों के आशय पर निर्भर करता है |
समय को संविदा का मर्म बनाने के लिए स्वर्णिम नियम यह है कि पक्षकारों को अपना आशय संविदा में स्पष्ट, अभिव्यक्त एवं असंदिग्ध भाषा में उल्लेख कर देना चाहिए |
उड़ीसा टेक्सटाइल्स मिल्स बनाम गणेश दास, एo आईo आरo 1961 पटना 107 के मामले में यह अभिनिधार्रित किया गया कि निम्नलिखित अवस्थाओं में समय को संविदा का मर्म होना प्रायः हमेशा ही माना जाता रहा है -
- जहाँ कि पक्षकारों नें स्पष्ट रूप से ऐसा अनुबंधित किया हो ;
- जहाँ विलम्ब क्षति के रूप में परिवर्तनशील हो;
- जहाँ कि ऐसा अर्थ लगाया जाना संविदा के स्वरूप उसकी आवश्यकताओं से अपेक्षित हो |
त्रिलोक्यनाथ बनाम प्रवन्ती सांतरा , ए आई आर 1974 कलकत्ता 261 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि संविदा के समय कब मर्म हो जाता है यह प्रत्येक मामले की परिस्तिथियों पर निर्भर करता है | यदि प्रलेख में संविदा को रद्द करने के लिए स्पष्ट रूप से कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया हो तो विक्रय की संविदा में शेष विक्रय धन को एक निश्चित समय के भीतर न दे सकने के कारण संविदा आवश्यक रूप से स्वतः समाप्त हो जाएगी |
मेo सीताडेल फाईन फार्मास्यूटिकल बनाम मेंo रामनियम रियल स्टेट प्राo लिo, (ए० आईo आरo 2011 एसo सीo 3351) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिधार्रित किया गया कि - जहाँ संविदा में समय को मर्म माना गया हो तथा एक निधारित समयावधि में किसी नगरीय भूमि के विक्रय की क्रेता द्वारा अनुमति प्राप्त की जानी हो, वहाँ ऐसी अनुमति प्राप्त नही किये जाने पर संविदा विक्रेत्ता द्वारा विखंडित की जा सकेगी |
श्रीमती शारदामणि कन्ड़प्पन बनाम श्रीमती एसo राजलक्ष्मी (एo आईo आरo 2011 एसo सीo 3234 )के मामले में यह प्रातिपदित किया गया है कि -अचल सम्पति के विक्रय के मामले में जहाँ प्रतिफल के भुगतान का समय निधारित कर दिया गया हो और अवकाश होने पर भुगतान की रीति सुनिशिचत कर दी गयी हो, वहाँ समय संविदा का मर्म माना जायेगा |
2. जब समय संविदा का मर्म न हो - जहाँ समय किसी संविदा का मर्म न रहा हो और वचनदाता उसका पालन नियम समय के भीतर करने में असफल रहा हो वहाँ वचनग्रहीता को उसे शून्य घोषित का अधिकार नही होगा | वह ऐसी असफलता से कारित हानि के लिए वचनदाता से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है |
यदि पक्षकारों ने करार को उन अर्थों में नही ग्रहण किया कि समय संविदा का सार है तथा समय के बीच जाने के पश्चात् भी भुगतान की मांग की, न्यायालय द्वारा यह धारित किया गया कि समय संविदा का सार नही है |
(अमतेश्वर आनन्द बनाम वीरेन्द्र मोहन सिंह, एo आईo आरo 2006 एसo सीo 151 ) |
समय संविदा का मर्म होने की अवस्था में ऐसी संविदा वचनग्रहीता के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है |वचनग्रहीता को अपने इस विकल्प का प्रयोग समय समाप्त होने के समय या उसके पूर्व ही करना चाहिये | समय समाप्त हो जाने के बाद वह अपने इस विकल्प का प्रयोग नही कर सकता |
बाबूराम बनाम इन्द्रपाल सिंह, (1998 ) 6 एसo सीo सी o 363 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिधर्रित किया कि अचल सम्पति के प्रतिहस्तांतरण (Reconveyance ) की संविदाओ में, समय संविदा का सार है और (धारा 55 ) का सिद्धांत लागू नही होता है | इस मामले में अचल सम्पति की विक्रय संविदा में यह उपबन्धित किया गया था कि चाहे तो विक्रयकर्ता 5 वर्ष की समय सीमा में उस सम्पति को क्रेता से वापस ले सकता था |
Source: CLA, LL.B. 3 Year, First Semester, 1st Paper
LAW OF CONTRACT - I
Dr. Ram Manohar Lohiya Awadh University Ayodhya
Dr. RMLAU Ayodhya
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