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प्रश्न - न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत भारत के संविधान में किस प्रकार समाविष्ट है?

भारतीय संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित उपबंध संविधान में ही निहित है । वस्तुतः संविधान का अनुच्छेद 13 न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है । यह शक्ति केवल उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32) तथा उच्च न्यायालयों ( अनुच्छेद 226) को ही प्रदान की गई है । अपनी इस शक्ति के अधीन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा विधान मंडलों द्वारा पारित किसी भी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है । जो संविधान के भाग तीन में दिए गए किसी उपबंध की असंगति में हैं ।

ए o के o गोपालन बनाम मद्रास राज्य, AIR 1950 SC 27 के वाद में मुख्य न्यायाधिपति श्री कानिया ने कहा है कि "संविधान निर्माताओं ने तो केवल चेतावनी के रूप में अनुच्छेद 13 में न्यायिक पुनर्विलोकन से सबंधित उपबंधों का समावेश किया है । अन्यथा इसकी अनुपस्थित में भी न्यायालयों को ऐसी शक्ति सहज रूप से प्राप्त है । भारत में संविधान सर्वोच्च विधि है और एक अधिनियमित को विधिमान्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी प्रकार से संविधान के उपबंधों के अधीन हो । 
मद्रास राज्य बनाम बी जी राव AIR 1952 SC 196 के वाद में मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने कहा कि हमारे संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित स्पष्ट उपबंध दिए गए हैं जो संविधान के अनुकूल हैं । न्यायालय एक सजग प्रहरी के रूप में संविधान की रक्षा न्यायिक पुनर्विलोकन जैसे हथियार के माध्यम से करता है ।
इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन की इस शक्ति के अंतर्गत देश का उच्चतम न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालय सभी पूर्व संविधान विधियों और संविधानोत्तर विधियों को यदि वे संविधान के भाग 3 के उपबंधों का अतिक्रमण करती हैं , असंवैधानिक घोषित करता है । 

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