संविदा की परिभाषा
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 2 (h) में संविदा की परिभाषा दी गई है ।
इसके अनुसार- वह करार जो विधित: प्रवर्तनीय हो, संविदा है |
विधिशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषा
सामण्ड के अनुसार "संविदा एक ऐसा करार है जो दो पक्षों के बीच दायित्व का सृजन करता है एवं उसकी व्याख्या करता है |"
पोलक एवं मुल्ला के अनुसार - प्रत्येक करार या वचन जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो, संविदा कहलाता है |
सर विलियम एंसन के अनुसार- "संविदा से आशय दो या दो से अधिक ब्यक्तियों के बीच ऐसे करार या समझौते से है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो तथा उसके द्वारा एक या एक से अधिक पक्षकार दुसरे पक्षकारों के विरुद्ध किसी काम को करने अथवा न करने के लिए कुछ अधिकार अर्जित कर लेता है या कर लेते हैं |"
अधिनियम की धारा 2 (h) के अंतर्गत दी गयी संविदा की उपर्युक्त परिभाषाओं से इसके दो महत्वपूर्ण तत्व स्पष्ट होते हैं अर्थात संविदा के गठन के लिए दो बातो का होना आवश्यक है |
(1)- दो पक्षों के बीच करार हुआ हो एवं (2) ऐसा करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो |
सभी संविदा करार नहीं होते
यह करार एवं संविदा के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देना समाचीन होगा - शब्द करार संविदा से अधिक व्यापक है | सभी संविदाएं करार होती है लेकिन सभी करार संविदाएं नहीं होती | प्रत्येक करार से विधिक दायित्व का उत्पन्न होना आवश्यक नहीं होता , जबकि प्रत्येक संविदा में विध्दिक दायित्वों की उत्पत्ति आवश्यक होती है |
उदाहरण
एक मित्र द्वारा दूसरे मित्र को भोजन पर आमंत्रित करना , चलचित्र देखने के लिए आग्रह करना आदि ऐसे करार हैं जो नैतिक दृष्टि से प्रवर्तनीय हो सकते हैं, लेकिन विधिक दृष्टि से नहीं |
वैध संविदा के आवश्यक तत्व
संविदा अधिनियम की धारा 10 में विधिमान्य संविदा के निम्नलिखित आवश्यक तत्वों का उल्लेख किया गया है --
1- करार का होना - प्रत्येक संविदा करार होती है, अतः यह स्वतः स्पष्ट है कि संविदा के लिए करार का होना आवश्यक है । करार प्रस्थापना, प्रतिग्रहण एवं प्रतिफल से मिलकर बनता है । करार दो पक्षकारों के बीच होता है । अतः संविदा में भी दो पक्षकारों का होना विवक्षित है ।
2- पक्षकारों का सक्षम होना - संविदा के पक्षकारों का सक्षम होना आवश्यक है । सक्षमता से अभिप्राय है -
1- प्राप्तवय या वयस्क हो 2- स्वस्थ्यचित्त होना एवं 3- संविदा करने के लिए किसी विधि के अधीन अनर्ह (Disqualified) नहीं होना ।
उदाहरणार्थ - अवयस्क व्यक्ति भागीदारी की संविदा नहीं कर सकता । विधि के अधीन अवयस्क केवल भागीदारी के लाभों में सम्मिलित हो सकता है । (धारा 30 भागीदारी अधिनियम )
3- स्वतंत्र सहमति का होना - प्रत्येक करार पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से किया जाना आवश्यक है ।
सहमति स्वतंत्र होती है, यदि वह -
प्रपीड़न (Coercion) (धारा 5) असम्यक असर (Indue Influence) (धारा 16); कपट (धारा 17) दुर्व्यपदेशन (धारा 18) में से किसी एक या एक से अधिक प्रभावित न हो ।
विधिशास्त्र की स्वस्थ परंपरा में कपट एवं दुरभिसंधि पवित्र से पवित्र संव्यवहार को भी दूषित कर देती है । संविदा का भी इनसे परे होना आवश्यक है । (भाऊराव डगडूपरेलकर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र ए आई आर 2005 एस सी 3330) ।
4- विधिपूर्ण प्रतिफल एवं उद्देश्य का होना -- प्रतिफल एवं उद्देश्य का विधिपूर्ण होना आवश्यक है | प्रतिफल एवं उद्देश्य विधिपूर्ण होता है यदि वह --
- विधि द्वारा निषिद्ध नहीं हो |
- वह विधि के प्रावधानों को निष्फल न करता हो ,
- वह कपटपूर्ण न हो ,
- वह शरीर या संपत्ति को क्षति न पहुंचाता हो ,
- वह लोकनीति के विरुद्ध न हो |
5- अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित नहीं किया जाना - किसी करार को अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित किया गया नहीं होना चाहिए | संविदा अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित संविदाओं को शून्य घोषित किया गया है --
- दोनों पक्षकारों द्वारा तथ्य की भूल के अधीन किया गया करार (धारा 20)
- प्रतिफल के बिना किया गया करार (धारा 25)
- विवाह में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 26)
- व्यापर में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 27)
- विधिक कार्यवाहियों में अवरोध पैदा करने वाला करार (धारा 28)
- अनिश्चित अर्थ वाला करार (धारा 29)
- पण या बजी का करार (धारा 30)
- असंभव घटनाओं पर आधारित करार ; एवं
- असंभव कार्य करने का करार (धारा 36)
6- लिखित एवं अनुप्रमाणित होना -- जहाँ किसी संविदा का भारत में प्रवृत्त किसी विधि द्वारा लिखित एवं अनुप्रमाणित किया जाना अपेक्षित हो , वहां उसका लिखित एवं अनुप्रमाणित होना आवश्यक है |
LLB 3 Year Programme, 1st Semester , 1st Paper, RMLAU Ayodhya, Book- CLA,
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