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प्रश्न - दण्ड की परिभाषा दीजिए | दण्ड के विभिन्न सिद्धांतों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए |

 उत्तर- जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, मनुष्य सामाजिक परिवेश में रहने लगा है | बेहतर सामाजिक व्यवस्था हेतु विभिन्न नियम अधिनियम बनाये गए, परन्तु व्यक्ति का आचरण शुद्ध एवं नियंत्रित करने के लिए नियमों का निर्माण करना ही पर्याप्त नही होता है | अतः नियमों के उल्लंघन को रोकने हेतु दण्ड की व्यवस्था की गयी तथा समय समय पर दण्ड नीतियों में राजा या संप्रभु की इच्छानुसार परिवर्तन किया जाता रहा है | दण्ड के सिद्धांतों को प्रमुखतया पांच भागों में बिभाजित किया गया है --

                      (1) प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त की उत्पत्ति अपराधकर्ता के विरुद्ध प्रतिशोध की प्राचीन अवधारणा से हुई है | दण्ड से प्रतिशोध की भावना संतुष्ट होती है | इस मत को मानने वाले अब बहुत कम लोग हैं कि दण्ड के द्वारा प्रतिशोध की भावना संतुष्ट होती है | प्राचीन काल में जब एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को क्षति कारित करता था तब पीड़ित पक्षकार का यह अधिकार माना जाता था कि वह उस व्यक्ति से अपना प्रतिशोध ले, जिसने उसकी क्षति कारित की हो |

        हम्मूरबी  की संहिता के निर्माण के समय से ही (लगभग 1875 ई.पू.) 'आँख के बदले आँख' और 'दांत के बदले दांत' के सिद्धान्त को साधारण जनता में इस रूप से स्वीकार कर लिया गया है कि अपराधकर्ता कष्ट अथवा पीड़ा का पात्र है | यह सिद्धान्त दण्ड के उद्देश्य की ओर ध्यान न देकर केवल प्रतिशोध की ओर ही ध्यान देता है | सामंड  के शब्दों में "दण्ड भुगतने का अर्थ है उस विधि जिसका उल्लंघन किया गया है, के कर्ज का भुगतान करना |"

            प्राचीन जर्मनी में जारकर्म का दण्ड तुरंत और पति की इच्छा के अनुसार दिया जाता था | विक्षुब्ध पति अपनी निष्ठाहीन पत्नी के सर के बाल काटकर और सगे सम्बन्धियों के समक्ष उसे नंगा करके घर से निकल देता था और सारे गांव में उसे घुमा -घुमाकर कोड़ों से  मरता था  |

    प्रो. ओपेनहीम  इस बात में जरा भी गुंजाइश नहीं मानते  कि प्रतिशोध की भावना की तृप्ति आज  के आधुनिक मानव को भी प्रिये है | प्रतिशोध  संतुष्टि  से प्राप्त  होने वाली प्रसन्नता  मन  को प्रवचनों और प्रहेलिकाओं  की ओर  ले  जाती है | इससे  उत्पन्न होने वाली प्रसन्नता  भयंकरता  से  उत्पन्न होने  वाली  प्रसन्नता  है | यह  उस  शहद के समान  है ,जो  शेर  के  मुँह से टपकती  है |

            परन्तु आधुनिक  युग में  इस  सिद्धांत  का  अर्थ  बोध  एक  से  अधिक  भाव  के  अन्तर्गत  लगाया  जाता  है ---

            (a)    इसका तात्पर्य  क्षतिग्रस्त व्यक्ति की प्रतिशोध -संतुष्टि की इच्क्षा को पूरा करने के लिए राज्य                             द्वारा क्षतिकर्ता को दण्ड देना है ; तथा 

            (b)   दण्ड अधिरोपण के माध्यम से  राज्य द्वारा अपनी  विधयों के अतिलंघन पर अपना अनुमोदन                            प्रकट करना है |

            (2)   प्रायश्चितिक  सिद्धांत  -यह सिद्धांत केवल हिन्दू विधिशास्त्र की अपनी विशेषता है | पाश्चात्य देशों ने इसे मान्यता नहीं दी है | इस सिद्धांत को आत्म निग्रह का सिद्धांत भी कहा जाता है | यह अपराधी दुश्कार्यों के लिए एक प्रकार का प्रायश्चित या आत्म निग्रह है | मनु  कहते है कि '' वे लोग जो किसी अपराध के दोषी हैं जब राजा द्वारा दण्डित कर दिए जाते हैं तो वे शुद्ध हो जाते हैं और स्वर्ग में उसी प्रकार जाते हैं जिस प्रकार सज्जन तथा धर्म परायण व्यक्ति जाते हैं |'' हिन्दू विधिशास्त्रियों की राय में प्रायश्चित या आत्म पाप को धोकर साफ कर देता है |
        (3) प्रतिरोधक सिद्धान्त (Deterrent Theory)--इस सिद्धान्त में दण्ड का उद्देश्य अपराधी को भयभीत करता है जिससे वह भविष्य में अपराध ना करे तथा दूसरों के लिए एक उदहारण रखना है की यदि वे अपराध करेंगे तो उन्हें भी इसी प्रकार दण्डित किया जाएगा | दोषी को दण्डित करके दूसरों के लिए एक उदहारण रखा जाता है कि जो लोग विधि का उल्लंघन करेंगे | वे भी दण्डित किये जायेंगे | इसमें दण्ड का मुख्य उद्देश्य अनिष्टकारी व्यक्तियों को भयभीत करके समाज में लोगों के हितों का अनुरक्षण एवं बचाव करना है |
इस प्रकार इस सिद्धान्त का प्रयोग दो अर्थों में होता है--
1. यह कि अपराधकर्ता को दण्ड देने से अन्य अपराधी उस अपराध को करने में भय का अनुभव करते हैं, जिसको करने पर अपराधकर्ता को दण्डित किया गया है |
(2) यह कि इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि अपराधकर्ता को दण्ड देने से वह स्वयं भविष्य में अपराध करने में भय का अनुभव करता है |
(3) इसकी विभिन्न कमजोरियों के बावजूद भी इस सिद्धान्त को आपराधिक क्षेत्राधिकार के आधुनिक न्यायालयों की नीति से समाप्त नहीं किया गया है | प्रसिद्द विधिशास्त्री हीगेल ने इस सिद्धान्त का जोरदार समर्थन किया है |
           (4) निरोधात्मक या निवारक सिद्धान्त (Preventive Theory) दण्ड का प्रमुख लक्ष्य अपराध का निवारण है ताकि जनता की अपराध से रक्षा हो सके | दण्ड न्याय के क्षेत्र में आपराधिक प्रयत्नों , षड्यंत्रों और दुष्प्रेरणाओं जैसे प्रारंभिक अपराधों के लिए दण्ड का उपबन्ध करके दण्ड के निवारणात्मक पहलु पर जोर दिया गया है | प्रसिद्ध दार्शनिक और विधि सुधारक जेरमी बेन्थम का अभिमत है कि वास्तविक औचित्य के रूप में दण्ड का मुख्या उद्देश्य अपराध का निवारण होना चाहिए |
        इसे अयोग्यता या अपुन्गता का सिद्धान्त भी कहते हैं , क्योंकि इसका उद्देश्य अपराधी को अपंग बनाकर अपराध रोकना था | अपराध की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए अपराधियों को मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या काले पानी की सजा दी जाती है | उदहारण के लिए--यदि कोई व्यक्ति चोरी करता था तो उसका हाथ काटकर उसे दण्डित किया जाता था |
        आजकल निवारक के रूप में कुछ अन्य साधनों को भी प्रयोग में लाया जाता है उदहारण के लिए--ऑफिस या घर का जब्तीकरण, अनुज्ञप्ति का निलंबन या निरंजन इत्यादि | भारत में उन् लोगों के विरुद्ध जो लोग अपराध कारित करने की धमकी देते हैं या जो लोग समाज के लिए अन्यथा घातक हैं ये उपाय हैं--निवारक निरोध, शान्ति तथा अच्छा आचरण बनाये रखने के लिए प्रतिभूति परन्तु दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा प्रदत्त निवारक उपाय एक प्रकार से भिन्न है, क्योंकि वे दंडकारी प्रकृति के नहीं हैं |
        (5) सुध्रात्मक सिद्धान्त (Reformative Theory)--आज के कल्याणकारी राज्य में दण्ड का सुधारात्मक उद्देश्य अधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण माना जाता है | सुधारात्मक सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधी को एक अच्छा मानव बनाना है | इसके अन्तर्गत अपराधियों को काराग्रहों में शिक्षा देना, उधोग धंधे सिखाना आदि आता है | राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहा करते थे; 'मानव जन्म से बुरा नही होता अपितु परिस्थितियाँ उसे बुरा बना देती हैं,' अतः अपराधियों को इन बुराइयों से दूर रखकर उन्हें अच्छे मानव बनाना ही सुधारात्मक दण्ड का उद्देश्य होना चाहिए | "सुधारात्मक दण्ड का उद्देश्य उनके इस कथन पर आधारित है कि "हमें पापी से नही पाप से घृणा करनी चाहिए , अपराधी से नहीं , अपराध से घृणा करनी चाहिए |"
        "अपराधों की बारीकी से छानबीन करके दण्ड दिया जाना चाहिए, क्योंकि अपराधों की छानबीन किये बिना दण्ड देना एक अत्यंत महंगा मनोरंजन है |"
"Uninvestigated criminals are an expensive luxury."
यदि आपराधिक चरित्र वाले व्यक्तियों को इस प्रकार शिक्षित किया जाय कि वे समाज से ठीक प्रकार से समायोजन कर सकें तो उनके द्वारा अपराध करने की संभावनाएं बहुत थोड़ी या बिल्कुल ही नही रह जाती हैं | अतः दण्ड का उद्देश्य अपराधी के चरित्र में सुधार करना होना चाहिए | न कि उसे प्रताडना देना होना चाहिए | इसकी मुख्य धारणा यह है कि बीमार को मारकर रोगमुक्त नही किया जाना चाहिए | उसी प्रकार अपराधी को मारकर अपराध नहीं रोके जा सकते हैं | बल्कि उनमे सामाजिक तथा शैक्षिक तत्वों द्वारा सुधार लाने का प्रयत्न करना चाहिए | आधुनिक काल में अपराधियों के सुधार तथा पुनर्निवास को अत्यंत महत्त्व दिया जाता है | विशेषकर युवा अपराधियों के मामले में इस सिद्धान्त को सफलतापूर्वक लागू किया गया है, फिर भी यह सिद्धात व्यावसायिक तथा उन अपराधियों जिनकी अपराध करने की आदत बन गयी है , के मामलों में असफल सिद्ध हुआ है | यह सिद्धान्त सार्थक सिद्ध हो सकता है, यदि इनमे कुछ निरोधात्मक तत्वों का भी सम्मिश्रण कर दिया जाय |
        इस प्रकार उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह सिद्धान्त सर्वोत्तम है | विश्व के अनेक देशों द्वारा यह अपनाया जा चुका है |

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