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प्रश्न- अपराध के विभिन्न स्तरों की विवेचना कीजिए | क्या अपराध की केवल तैयारी करना भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है ? यदि हाँ तो , किस अपराध अथवा अपराधों के हेतु ? तैयारी तथा प्रयत्न में अंतर बताइए |

 उत्तर - अपराध के स्तर अथवा अवस्थाएं -- यदि कोई  अपराध स्वेच्छापूर्वक तथा पूर्व चिंतन के अनुरूप किया जाय तो उसे  निम्नलिखित चार अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है--

  1. आशय;
  2. तैयारी;
  3. प्रयास तथा;
  4. अपराध की पूर्णता !

        (1) आशय या अभिप्राय -- यह आपराधिक कृत्य की प्रथम अवस्था है ! प्राचीन काल में केवल आपराधिक आशय ही दण्डनीय होता था, परन्तु अब नहीं , क्योंकि मनुष्य के आशय को साबित करना अत्यंत दुष्कर कार्य होता था | सन् 1744 में एक बहुत पुराने मामले में एक अंग्रेज न्यायाधीश ने यह अभिमत व्यक्त किया था कि मनुष्य के विचारों  का  परीक्षण नहीं किया जा सकता  क्योंकि शैतान  को भी स्वयं मनुष्य के  विचारों का  ज्ञान  नहीं  होता |
    यद्यपि  संहिता के  अन्तर्गत  केवल अभिप्राय  मात्र  ही  दण्डनीय नहीं है  परन्तु  फिर भी  इसके  अधीन  कुछ  अपराधों  को  अत्यंत  गंभीर  प्रकृति  के  अपराध  मने गए हैं  तथा  इन  अपराधों  को  करने  का अभिप्राय मात्र  दण्डनीय  है ,क्योंकि इनको प्रारंभिक अवस्था में ही रोक देना जरूरी है --
  1. सरकर के विरुद्ध युद्ध छेडने का आशय ;
  2. राजद्रोह ;
  3. आपधिक षड़यंत्र के अपराध का आशय;
  4. डकैती करने के प्रयोजन से एकत्रित होना (धारा 402)
        (2)तैयारी --आपराधिक कृत्य की दूसरी अवस्था तैयारी है | तैयारी का अर्थ है कि वांछित आपराधिक कृत्य को करने के लिए आवश्यक साधन या उपाय जुटाना या उसका प्रबंध करना | तैयारी को भी दण्डनीय नहीं  माना जाता है ,क्योंकि यह आवश्यक साधन नहीं है कि जो कोई भी तैयारी करता है वह वास्तव में अपराध भी करेगा और फिर यह भी साबित करना कठिन है कि आवश्यक तैयारियां अपराध करने के लिए ही की गई थीं |
    उदाहारादार्थ --किसी  कि हत्या करने के लिए, हत्या किये जाने वाले औजारों को एकत्रित करना हत्या के लिए तैयारी माना जाता है | इसी तरह, हमला करने के गिरोह का गठन भी एक तैयारी है लेकिन विधि के अन्तर्गत दण्डनीय नहीं है | परन्तु भारतीय दण्ड संहिता में निम्नलिखित अपराधों की तैयारी मात्र ही दण्डनीय है ---
  1. राज्य के विरुद्ध युद्ध छेडने की तैयारी करना (धारा 122)|
  2. भारत के साथ शांतिपूर्ण सम्बन्ध  रखने वाली  शक्त्यों के क्षेत्र में लूटमार करने  की तैयारी करना (धारा 126)|
  3. डाका डालने की तैयारी (धारा 399)
  4. सिक्कों या सरकारी टिकटों के कूटकरण की तैयारी (धारा 233 से 235,256 तथा 257 )
  5. कूटकृत सिक्के ,झूठे बाँट या माप या जाली दस्तावेज रखना मात्र दण्डनीय है तथा धारक यह तर्क पेश नहीं कर सकता है कि वह अभी तक तैयारी की अवस्था में ही था | (धारा 242,243,259,266,474) 
    (3)प्रयत्न -यह अपराध कि तीसरी अवस्था है | इसे प्रारंभिक अपराध कहा जाता है | संहिता में प्रयास या प्रयत्न की परिभाषा कही पर भी नहीं दी गई है | इसके अध्याय  23 (धारा 511) में केवल कारावास या आजीवन कारावास से दंडित किये जाने  वाले अपराध को  करने के प्रयास को दण्डित किये जाने की व्यवस्था है तथा इसमें उप अपराधों के प्रयत्न को दण्डित नहीं किय जा सकता जिनके लिए संहिता में पृथक से उपबन्ध किया गया हो |
            प्रयत्न शब्द से यह बोध होता है  | कि यदि प्रयत्न सफल हो जाता तो वह अपराध, जिसको करने का आरोप है, पूर्ण हो गया होता | प्रयत्न जब पूर्ण होता है तब अपराध अपने चौथे  प्रक्रम पर  पहुँच जाता है |
भारतीय दण्ड संहिता में प्रयास का तीन भिन्न तरीकों से वर्णन किया गया है --
  1. पूर्ण अपराधों तथा  प्रयासों को दण्डित करने की व्यवस्था ही धारा के अन्तर्गत की गई है तथा दोनों  के लिए एक ही दण्ड निर्धारित किया गया है |
  2. दूसरे मामलो में मुख्य अपराधों तथा उनके प्रयासों की व्याख्या साथ ही साथ  की गई है तथा  उनके लिए भिन्न दण्ड निर्धारित किये गए है 
        (a) हत्या धारा 302 के अन्तर्गत दण्डनीय है ,किन्तु हत्या का प्रयास धारा 307 के अन्तर्गत दण्डनीय है |
        (b) सदोष मानव वध को धारा 304 के अधीन दण्डित किया जाता है ,किन्तु सदोष मानव वध का प्रयास धारा         308 के अन्तर्गत दण्डनीय है |
        (c) आत्महत्या के प्रयास को धारा 309 के अन्तर्गत दण्डित किया जाता है |पूर्ण अपराध दण्डनीय नहीं है                ,क्योंकि अपराधी को दंडित करना असंभव है ,परन्तु महाराष्ट्र राज्य  बनाम  श्रीपति डूबल   (1987) Cr.L.J.         743 के मामले में आत्महत्या का प्रयत्न ,जो सहिंता की धारा 309 के  अन्तर्गत अपराध  है ,को संबिधान के            अनुछेद 21 के प्रतिकूल माना है |
        इस निर्णय प .रतनाम बनाम  भारत संघ  ,A.I.R.  1994,S.C.674 के मामले में अनुमोदित कर दिया गया है       (d)लूट धारा 392  के अधीन दण्डनीय है ,किन्तु लूट करने की चेष्टा (प्रयास ) धारा 393 के अधीन तथा यदि         लूट करने की चेष्टा घातक हथियारों से सुसज्जित होकर की जाये तो यह धारा 398 के अन्तर्गत दण्डित                किया जायेगा |
        (e) लूट करते समय स्वेच्छापूर्वक  चोट पहुचना धारा 394 के अधीन दण्डनीय है ,किन्तु लूट करते समय          गंभीर चोट पहुँचाने का प्रयत्न करना धारा 397 के अधीन दण्डनीय है |
        (f) हत्या सहित डकैती धारा 396 के अन्तर्गत दण्डनीय है, किन्तु हत्या के प्रयास के साथ डकैती धारा 397 के अन्तर्गत दंडनीय  है |
3. किसी व्यक्ति को किसी विधि विरुद्ध कार्य के लिए उकसाने का प्रयत्न भी दंडनीय है |
4. प्रयास के अन्य मामले (जहाँ दण्ड  संहिता में निश्चित प्रावधान नहीं बनाये गए हैं ) धारा 511 के अधीन दण्डित किये जाते हैं , जहाँ यह कहा गया है कि अभियुक्त को अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम कारावास की अवधि से आधे समय कि कैद या निर्धारित अर्थदण्ड या दोनों द्वारा दण्डित किया जाएगा |
    उदहारण के लिए -- चोरी करने के प्रयास के सम्बन्ध में संहिता में कोई व्यवस्था नहीं की गई है तथा चोरी के लिए निर्धारित दण्ड धारा 379 के अन्तर्गत 3 वर्ष की सजा या अर्थदण्ड या दोनों के द्वारा दण्डित किया जाएगा |
प्रारंभ में असंभव प्रयास को दण्डित नहीं किया जाता था, परन्तु अब इसे दंडनीय माना जाता है |
    उदाहणार्थ-- A ने खाली संदूक से जेबरात चुराने का असफल प्रयास किया | A चोरी के प्रयास का दोषी है यद्यपि संदूक में जेबर नहीं थे |
    मदनलाल बनाम राजस्थान राज्य , (1987) (Cr.L.J. 257 Raj.) के मामले में अभियुक्त मदनलाल ने शांती नामक एक लड़की का सलवार खोल दिया और अपना भी पायजामा उतार दिया |उसने अपना खेस जमीन में बिछा दिया और अपने हाथ से लड़की का मुंह बंद कर दिया ताकि वह चिल्ला ना सके और उसके ऊपर लेट गया तथा अपने लिंग को उसके योनि में डालने का प्रयास करने लगा | इस काम में वह इसलिए सफल नहीं हो पाया, क्योंकि कुछ लोग वहाँ पहुँच गए और उन्होंने उसे लड़की के ऊपर से उस समय घसीट लिया जब वह कमर से नीचे एकदम नंगी हालत में उस लड़की के ऊपर लेटा हुआ था | न्यायालय ने उसे बलात्कार के प्रयास का दोषी माना |
    महाराष्ट्र राज्य बनाम मोहम्मद याकूब,  A.I.R.  1980, S.C. 1111 के मामले में तीन व्यक्तियों (ट्रक एवं जीप के ड्राईवर तथा ट्रक का क्लीनर ) को भारत से बाहर चांदी कि तस्करी प्रयास करने हेतु अभियोजित किया गया | उन्हें एक निश्चित सूचना मिलने पर पकड़ा गया था और एसे समुद्री तट जहाँ समुद्री यान पहुँच सकते थे, के निकट पाया था | तलाशी लेने पर चांदी की सिल्लियाँ ट्रक में छिपाई हुई पायी गयीं | एक यन्त्र चालित यान के इंजन के आवाज भी निकट के क्रीक से सुनायी पड़ी थी | अपराधियों को समुद्र द्वारा भारत के बाहर चाँदी  के निर्यात के प्रयास हेतु दोषी पाया गया |
    (4) अपराध कि पूर्णता-- यह आपराधिक कृत्य की अंतिम अवस्था है | कोई प्रयत्न सफल हो जाता है तो अपराध पूर्ण हो जाता है |
    उदहारण के लिए-- 'A' ने 'B' के मारने के उद्देश्य से उस पर गोली चला दी | यदि 'B' की मृत्यु हो जाती है तो 'A' को हत्या का अपराध का दोषी माना जाएगा और यदि 'B' केवल घायल हो जाता है या उसे गोली नहीं लगती है तो यह हत्या का प्रयास मात्र का मामला होगा |
  प्रयास तथा तैयारी में अन्तर
तैयारी और प्रयत्न के बीच के अन्तर को समझने के लिए विधि के क्षेत्र में न्यायिक निर्णयों के आधार पर निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किये गए हैं, ताकि एक सामान रूप से इण दोनों ही संकल्पनाओं के बीच कोई विभाजक रेखा खींची जा सके --
        (1) सन्निकटता का सिद्धांत - इस सिद्धांत के जन्मदाता प्रोफ़ेसर ग्रानविल विलियम हैं | उनका अभिमत है कि अभियुक्त का कार्य प्रयत्न के प्रक्रम पर तब आता है जब वह अपराध की पूर्णता के सन्दर्भ में उसके अत्यंत निकट का कोई कार्य हो अथवा वह एक ऐसा पूर्वान्तिम कार्य हो जिसे वैधानिक आवश्यकता के रूप में अभियुक्त द्वारा अपने आकांक्षित परिणाम को प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना गया हो | 
    उदहारण के लिए - 'अ' 'ब' को मार डालने के उद्देश्य से गोली चलाता है किन्तु कौशल की कमी के कारण गोली 'ब' को नहीं लगती | यहाँ 'अ' 'ब' की हत्या के प्रयत्न का दोषी होगा | इसी प्रकार यदि 'अ' 'ब' की ओर बन्दूक का निशाना लगाकर उसे मार डालने के उद्देश्य से घोडा दबा देता है, परन्तु बन्दूक खाली पाई जाती जाती है | यहाँ 'अ' हत्या के प्रयत्न का दोषी है, क्योंकि उसे उद्देश्य की प्राप्ति में सफलता इसलिए नहीं मिली क्योंकि बन्दूक भरी नही थी, यद्यपि अपराध को कारित करने के लिए उसने वह सब कुछ किया जो उसके अपने हाथ में था या जो कुछ उसके नियंत्रण में था |
        (2) असम्भवता का सिद्धान्त -- असंभव प्रयत्नों को भी दण्डित नहीं किया जाता है किन्तु असम्भाव्यतापूर्ण होनी चाहिए न कि सापेक्ष | पूर्णतया असंभव कृत्य ऐसे कृत्य हैं जिनमे आपराधिक मनःस्थिति तथा आपराधिक कार्य दोनों विद्यमान रहते हैं | किन्तु कारित कार्यों से न तो आपराधिक मनःस्थिति तथा आपराधिक कार्य दोनों ही विद्यमान रहते हैं, किन्तु कारित कार्यों से न तो समाज में संत्रास उत्पन्न होता है और न ही असुरक्षा का भावना |
        उदहारण के लिए- 'अ' जादू टोना की सहायता से 'ब' को मार डालने का प्रयत्न करता है , यह प्रयत्न नहीं है |
        (3 ) अपराध के विमुख होने का सिद्धान्त -- अपराध से मुख मोड़ने अथवा उससे विमुख होने का सिद्धान्त तब लागू होता है तब अपराधकर्ता आपराधिक आशय की पूर्णता की राह में आवश्यक तैयारियाँ कर लेने के बाद उसको पूरा करने की ओर अग्रसर होता है, परन्तु पूरा करने के पहले ही उसका विचार बदल जाता है, और वह उसका परित्याग कर देता है | 
    उदहारण के लिए - यदि किसी खलिहान में आग लगाने के लिए जलाई गई दियासलाई को विचार परिवर्तन के कारण बुझा दिया जाता है और अपराध की पूर्णता की दशा में कोई कार्य नहीं किया जाता , तो भी यह कार्य प्रयत्न माना जायेग परन्तु फिर भी इस प्रकार का प्रयत्न दण्डनीय नहीं माना जाता |
        (4) सन्निकटता का असंदिग्धार्थक सिद्धान्त -- यह सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि किसी कार्य को तब अपराध की पूर्णता के सन्निकट माना जा सकता है, जब वह बिना किसी संदेह के यह इंगित करता हो कि  जिस दिशा में वह निर्दिष्ट है , उसका अंत क्या है, इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थक प्रो. टर्नर का  अभिमत है वह कार्य प्रयत्न के प्रक्रम पर पहुंचा हुआ कार्य है, जो असंदिग्ध रूप से अपराध की पूर्णता की ओर उन्मुख हो और अपना स्पष्टीकरण स्वयं करता हो या अपनी बाट स्वयं कह रहा हो |
        प्रो. टर्नर ने प्रयत्न के प्रक्रम का एक सटीक दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि कल्पना कीजिए किसी चलचित्र में यह प्रदर्शित किया जा रहा है | कि एक व्यक्ति अपने कमरे में बाहर की ओर खुलने वाली खिडकी की ओर मुह करके एकांत में बैठा हुआ है और एक अन्य व्यक्ति पीछे से दरवाजे से चुपके से उस व्यक्ति के पीछे आता है और जैसे ही वह हाथ में एक चाकू लेकर बैठे हुए व्यक्ति की पीठ में उसे भोंकने के लिए हाथ उठाता है वैसे ही चलचित्र का प्रदर्शन रोक दिया जाता है | इस दृश्य स्वल और अजनबी के कार्य के आधार पर उसके आशय का कोई परिचय कराए बिना दर्शकगण से यह पूछा जाता है कि बताइए उस अजनबी ने इसके बाद क्या किया होगा और दर्शकगण एक स्वर में असंदिग्ध उत्तर देते हुए यह बतलाते है कि अजनबी ने इसके बाद उस व्यक्ति की पीठ में चाकू भोंक दिया होगा , तो निःसंदेह केवल यह कहा जायेगा कि अजनबी का कार्य जिस प्रक्रम पर पहुंचकर दिखाए जाने से रोक दिया गया था, यह प्रयत्न की कोटि में आने वाला कार्य था, और उसके पूर्व का सारा कार्य , अर्थात चुपके से कमरे का दरवाजा खोलना, दबे पांव प्रवेश करना, चाकू हाथ में लेकर बैठे हुए व्यक्ति के पीछे खड़े होना, तैयारी के प्रक्रम का कार्य था |
        (5) सामाजिक खतरे का सिद्धान्त -- आपराधिक प्रयत्न के मामलों में उत्तरदायित्व का निर्धारण करने के लिए प्रचलित अपराध की गंभीरता एक महत्वपूर्ण मापदंड का कार्य करती है | यदि वाद के तथ्य एवं परिस्थितियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्य के परिणाम से उत्पन्न होने वाला प्रतिफल समाज के लिए खतरनाक हो सकता था, तो वह कार्य प्रयत्न का अपराध माना जायेगा | 
        भारत में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत अभयानंद मिश्रा बनाम बिहार राज्य A.I.R. 1961, S.C. 1698 का मामला तैयारी और प्रयत्न के बीच के अन्तर को स्पष्ट करता है --
        इस मामले में अभिकर्ता अभियुक्त द्वारा पटना विश्वविद्यालय में एम्.ए. (अंग्रेजी) की परीक्षा में बैठने का आवेदन प्रस्तुत किया गया था | अपने आवेदन पत्र के साथ उसने यह प्रमाण पत्र भी संलग्न किया था कि वह तीन वर्ष पूर्व का स्नातक है और एक विद्यालय का अध्यापक है | उसके अभिकथनानुसार ये प्रमाण पत्र उसके विद्यालय के प्रधानाध्यापक और सम्बंधित जिला विद्यालय निरीक्षक के द्वारा जारी किये गए थे | इन  प्रमाण पत्रों के आधार पर उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति प्राप्त हो गयी | बाद में जब विश्वविद्यालय को यह ज्ञात हुआ कि वह न तो स्नातक है और न ही अध्यापक और इन बातों के समर्थन में जो उसके द्वारा प्रमाण पत्र संलग्न किये गए थे वे सब जाली थे, तब विश्वविद्यालय द्वारा परीक्षा में बैठने की दी गयी अनुमति को वापस ले लिया गया और उसके विरुद्ध छल करने के प्रयत्न में अभियोजन प्रारम्भ किया गया, तथा उसे दोषसिद्ध किया गया | 
            अभियुक्त द्वारा उच्चतम न्यायालय से अपील किये जाने पर यह अभिनिर्धारित किया  गया कि उसने 'छल करने का प्रयत्न' का अपराध किया है | न्यायालय द्वारा यह अभिमत व्यत किया गया कि अभियुक्त को अपना आवेदन पत्र जब विश्वविद्यालय भेजा था, उसी क्षण छल करने के प्रयत्न के दायित्व के अधीन आ गया था | प्रयत्न का अपराध आशय और तैयारी के बाद की व्यवस्था है  | प्रयत्न के प्रक्रम पर पहुचने के लिए यह आवश्यक नही है कि अपराध को पूर्णता के शिखर बिन्दू पर पहुँचाने के लिए उठाये गए क़दमों को अंतिम के ठीक पूर्व का कदम होना चाहिए, अथवा यह कि अपराध का पूर्ण किया जाना उन परिस्थितियों द्वारा निवारित कर दिया गया हो, जोकि अपराधी के नियंत्रण में नही था |

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