Ticker

6/recent/ticker-posts

प्रश्न - भारतीय दण्ड संहिता के निर्माण से पूर्व भारत में अपराध विधि की क्या स्थिति थी ?

 उत्तर - आपराधिक विधि का सूत्रपात हमारी सभ्यता के साथ ही हुआ | जब से मानव ने अतं परिरक्षण और प्रजनन कि सहज प्रवृतियों कि परितृप्ति हेतु स्त्रियों और पुरुषों के एक सम्म्ल्लित समुदाय का स्वप्न देखा और परिवार के रूप में एक संगठित समाज में सामूहिक रूप से रहना प्रारम्भ किया; वैसे ही अपराधिक विधि की आवश्यकता का भी अनुभव किया जाने लगा | प्रारम्भ में मनुष्य अपने प्रति किये गए अपकार का निर्णय स्वयं  ही करता था और अपकार करने वाले को स्वविवेकानुसार दण्ड देता था जो की सामान्यतः बहुत ही कठोर और बर्बर हुआ करता था यह सामान्यतया "आंख के बदले आंख और दन्त के बदले दांत "(an eye for an eye and a tooth for a tooth ) के सिद्धांत पर आधारित था |



        विधि किसी समाज में प्रचलित सभ्यता और संस्कृति का दर्पण होता है | आता यदि भूतकाल में समाज ने  इस सिद्धांत का अनुगमन किया था कि अपकारियों को और उन लोगो को अवश्य  ही निर्वासित कर दिया जाना चाहिए ,जो अपने सह -नागरिको के साथ सदाचार का बर्ताव नहीं करते ,तो हमें उनकी विधियों को तिरस्कृत नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस समय के सामाजिक अभिमत और साधारण विश्वास में अपकारियों के सुधार और पुनर्वासन का अनुचिन्तन ही नहीं किया गया था | उस समय का समाज अपराध की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए दण्ड की कठोरता में विश्वास रखता था ताकि अपराधी स्थाई रूप से अपराध करने के योग्य न रह जाए | दण्ड की कठोरता का पुरातन सिद्धांत आज के नवयुग में दण्ड के सुधारात्मक सिद्धांत में परिवर्तित हो गया है | दण्ड विधि के उद्भव के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वानों का मत स्पष्ट है --

        प्रोफ़ेसर कूलर के अनुसार, दण्ड विधि का विकास लोकाचारों या लोकनीतियों के मणिकीकरण से हुआ है | उदाहरणस्वरूप यह कहा जाता है कि जब रुढियों का विकास हुआ तो कालांतर में इन्होने नीतिशास्त्र का रूप ग्रहण कर लिया | और जब इनके विरुद्ध कोई कार्य किया गया तो सामाजिक प्रक्रिया होने लगी और इनका निवारण करने के लिए दण्ड की विधि का निर्माण हुआ |

        प्रोफ़ेसर सोरोकिन के अनुसार, दण्ड विधि का उद्भव एकीकृत समाज की न्यायरूपी प्रक्रियाओं द्वारा हुआ है | भारतीय आपराधिक दण्ड विधि के इतिहास को मुख्य रूप से हम निम्नलिखित विभिन्न भागों में बाँट सकते हैं --

        हिंदू आपराधिक विधि - विचरित कृषक के रूप में सर्वप्रथम आर्य लोग हमारे देश में स्थाई रूप से बस गए | समय के साथ ही उन्होंने अपने  नियम तथा कानून बनाये जिससे दिन - प्रतिदिन का कार्य सुचारू रूप से चल सके | हिन्दू आपराधिक विधि , विशेषकर दण्ड विधान अत्यंत महत्वपूर्ण है | प्राचीन भारत की प्रचलित संहिताओं में 'मनु संहिता' पूर्ण संग्रह है जिसमे उस समय की प्रचलित विधियों एवं रीति-रीवाजों का उल्लेख किया गया है --

        प्रसिद्ध दण्डशास्त्री डॉ.पी.के. सेन के अनुसार , 'मनु संहिता के लागू होने से लेकर वर्तमान आपराधिक विधि के लागू होने तक भारत में एक सुविकसित न्याय व्यवस्था लागू थी | हिन्दू शासन काल में न्याय व्यवस्था या दण्ड व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व राजा पर हुआ करता था | अपराधियों को दण्डित करने का दायित्व भी राजा का हुआ करता था | भारत की प्राचीन दण्ड व्यवस्था में मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन पर आशिक बाल दिया जाता था | उस समय अपराध को पाप समझा जाता था | दण्डनीति के अंतर्गत दण्डशास्त्र को सामाजिक सुरक्षा का साधन माना गया है अतः स्वयं लक्ष्य न होकर साधन मात्र था , जिसका उद्देश्य सामाजिक शान्ति बनाये रखना था |" 

दण्ड व्यवस्था में उस समय निम्नलिखित चार प्रकार के दण्ड दिए जाने का प्रावधान था --

  1. वाक् दण्ड
  2. चेतावनी
  3. अर्थदण्ड
  4. कारावास, बंदीकरण तथा मृत्युदण्ड
    प्रथम अपराध करने वाले को वाक् दण्ड दिया जाता था | हत्या जैसे घृणित अपराध के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान था | शास्त्रों में जारता सम्बन्धी अपराध के लिए विस्तृत उपबन्ध दिए गए हैं | किसी स्त्री को आलिंगन करना, बुरी नियत से एकांत में ले जाना आदि जारता के गंभीर रूप माने जाते थे जिनके लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था | शीलभंग के लिए दोषी व्यक्ति का गुप्तांग काट दिया जाता था तथा उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी | अपराधियों के दोषी होने अथवा निर्दोष होने के लिए उनका अग्नि परीक्षण किया जाता था | अग्नि के आलावा उबलते पानी का भी प्रयोग किया जाता था | यद्यपि हिन्दू अपराध विधि काफी कठोर थी, परन्तुइसकी पश्चातवर्ती मुस्लिम दण्ड विधि का अंग्रेजी दण्ड विधि से तुलना की जाये तो यह निष्कर्ष निकलता है कि यह अपेक्षाकृत कम कठोर थी | हिन्दू विधि के सम्बन्ध में एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इसमें ब्राम्हणों एवं विशिष्ट वर्गों तथा स्त्रियों के प्रति अपेक्षाकृत कम दण्ड की व्यवस्था थी |
        
            मुस्लिम आपराधिक विधि- हिंदुस्तान पर अधिकार करने के बाद मुसलमानों ने हिंदुओं पर वह मुसलमानी आपराधिक विधि थोप दी जिसे वे शारा कहते थे | ययह विधि कुरान पर आधारित थी तथा उसे दैवी उत्पत्ति का माना जाता था चूँकि कुरानिक विधि से सम्पूर्ण आवश्यकता की पूर्ति संभव न हो सकी | इसलिए कुछ अंतर्नियमों , जिन्हें सुन्ना कहा जाता था , का निर्माण करके उन्हें लागू कर दिया गया | 
            इस विधि के सिद्धांत प्राकृतिक न्याय एवम सामान्य विवेक के अनुरूप नहीं थे तथा यह विधि अत्यंत कठोर एवम संकुचित थी| छोटे- छोटे अपराधों के  लिए कठोर दण्ड दिया जाता था |
मुस्लिम दण्ड विधि भिन्न -भिन्न अपराधों के लिए दिए जाने वाले दण्डों को मुख्यालय चार वर्गों में विभाजित करती थी _
    (1)किसा _किसा का अर्थ है --अधिकार अर्थात बदला | किसा जान बूझ कर ली गई हत्या या अन्य गंभीर प्रकार के मामले में लागू माना जाता था और पीड़ित पक्ष को यह अधिकार होता था कि अपराधी ने जिस  प्रकार काअपराध किया है ,उसी प्रकार का बदला उसके शरीर से अर्थात प्राण के बदले प्राण, अंग- भंग के बदले अंग भंग आदि ले सकें |
    (2)दिया - दिया  का अर्थ है -- खून का मूल्य | अनजाने घायल करने के मामले में एक निश्चित पैमाने पर खून का मूल्य पीड़ित पक्ष को दिया  जाता था |ऐसे मामले में जहाँ किसा का  दण्ड नियत था | यदि पीड़ित पक्ष चाहे तो उसे 'खून कि कीमत 'या 'दिया 'में बदला जा सकता था |
    (3)हद्द _हद्द का अर्थ है -- 'सीमा ' समाज -विरोधी या धर्म विरोधी  अपराधों  के लिए दण्ड की प्रकृति तथा प्रकार विधि द्वारा निश्चित कर दिया जाता था | इसके अधीन विहित दण्ड बदले नहीं जा सकते थे और ना ही उन्हें घटाया या बढ़ाया जा सकता था | हद्द के अंतर्गत जीना या अवैध मैथुन  के लिए पत्थर मार- मार कर या कोडे मार कर मार डालने का दण्ड निश्चित था | किसी विवाहिता स्त्री पर व्यभिचार  का झूंठा दोष लगाने पर अस्सी बैंत मरने का दण्ड दिया जाता था !
    (4)ताजिर -ताजिर का अर्थ है 'विवेकाधीन 'या ताजिर के अंतर्गत दिया जाने वाला दण्ड सदैव न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता था | इसमें कारावास, देश निकाला, भर्त्सना, कान ऐंठना  या   अपमानजनक  व्यव्हार मुख्य थे| मुस्लिम अपराध विधि में अनेक बुराईया थीं ,जिनके कारण यह विधि जन साधारण में अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी | स्टीफेन  भी कथन था कि "मुस्लिम विधि कि कठोरता एवम त्रुटियों का परिणाम यह हुआ कि वह बुरी तरह से संदेहजनक ,कमजोर एवम अनिश्चित रूप से इस तरह आ गई कि कोई उससे कुछ भी नहीं पा सकता था |"
    संक्षेप में मुस्लिम अपराध विधि में निम्नलिखित मुख्य दोष थे --
  1. इसके अधीन अपराध को सामाजिक ना मानकर हानि -पूर्ति का एक साधन मात्र माना जाता था |
  2. अपराधों को ईश्वर या व्यक्ति के विरुद्ध माना जाता था |
  3. किसा के लिए यह आवश्यक था कि आहत व्यक्ति दण्ड दिये जाने की मांग करे अन्यथा अभियुक्त साफ़ बच जाता था |
  4. दिया का गलत प्रयोग होता था |
  5. व्यक्ति द्वारा स्वयं सजा को कार्यान्वित किया जाता था अर्थात पती द्वारा पत्नी की हत्या किये जाने पर उसके बेटे अपनी माँ के क़त्ल के लिए , सजा का निर्धारण करते थे |
  6. न्यायाधीश की स्वविवेकीय शक्ति का प्रावधान उपयुक्त नहीं था |
  7. साक्ष्य के निया विचित्र थे, जिनके कारण मुस्लिम अपराध विधि और जटिल हो गई थी |
मानव वध का वर्गीकरण पांच भागों में विभाजित किया गया है --
  1. क़त्ल आमद;
  2. क़त्ल शवाह अम्द;
  3. क़त्ल खता;
  4. अस्वैच्छिक कार्य द्वारा अस्वैच्छिक मानव वध;
  5. दुर्घत्नात्मक मानव वध !
    ब्रिटिशकालीन दण्ड विधि --प्रारंभ में अंग्रेजों ने मुगलकालीन दण्ड विधि में कोई परिवर्तन नहीं किया, किन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है इस विधि में भरी कमियां थीं ! इस विधि के सिद्धांत ऐसे थे कि अंग्रेजों के प्राकृतिक न्याय, सद्विवेक तथा अच्छी सरकार सम्बन्धी विचारों के अनुरूप नहीं थे | अतः उन्होंने उसमें परिवर्तन करके एक अलग दण्ड विधि की स्थापना की |
        प्रारंभ में अंग्रेजी दण्ड विधि में , अपराधों की परिभाषा का अवलोकन नहीं हुआ था, परन्तु सम्राट को मार डालने की योजना बनाना , चर्च में लड़ाई झगड़ा करना आदि को अपराध माना जाता था |  इसी प्रकार धर्म और सदाचार के विरुद्ध किये गए कार्यों को भी अपराध माना जाता था | असतीत्व, जारकर्म, वेश्यागमन तथा शरीर के विरुद्ध किये गए अपराधों को परिभाषित नहीं किया गया था , परन्तु उनकी परिभाषा की परिकल्पना की जाती थी | इन अपराधों के लिए या तो शारीरिक दण्ड दिया जाता था अथवा जुर्माना | शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत मृत्युदण्ड, अंग भंग अथवा कशांघात का दण्ड दिया जाता था , और जुर्माना वर, बाट और वाईट के रूप में दिया जाता था ! वर का निर्धारण उस व्यक्ति की सामाजिक हैसियत के अनुसार किया जाता था , जिसके विरुद्ध अपराध किया गया था, और यदि उसकी मृत्यु हो जाती थी, तो उसके सम्बन्धियों को ऐसे व्यक्ति के प्राण के लिए निर्धारित मूल्य चुकाना पड़ता था ! बाट प्रतिकर के रूप में ज्ञात था, जिसका भुगतान अपराध से क्षत व्यक्ति के पक्ष में करना पड़ता था | वाईट का भुगतान अभियुक्त द्वारा अपने किये गए अपराध के लिए सम्राट के रूप में करना पड़ता था |
            ब्रिटिश शासन के काल में अनेक चार्टर एवं अधिनियम पारित कर मुसिम दण्ड विधि में सुधार एवं परिवर्तन किये गए ! आपराधिक न्याय प्रशासन के क्षेत्र में वारेन हैस्टिंग्स, लार्ड कार्नवालिस, विलियम बैंटिक आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ! इनके समय में जो प्रमुख सुधार किये गए, वे निम्नलिखित हैं---
  1. हत्या एवं सदोष मानव वध के अपराध का निर्धारण औजार से नहीं अपितु अपराधी के आशय से किया जाने लगा !
  2. अपराध को एक सामाजिक अपकार मानते हुए सरकार द्वारा उसका अभियोजन चलाए जाने की व्यवस्था की गयी |
  3. जारता, बलात्कार आदि अपराधों में प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों की गवाही की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया और अब परिस्थितिजन्य साक्ष्य एवं संस्वीकृति के आधार पर दण्ड देने की व्यवस्था की गयी |
  4. धर्म के भेदभाव को अब दूर कर दिया गया और कोई भी व्यक्ति, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान गवाही दे सकता था |
                धीरे-धीरे इनमें और भी परिवर्तन होते रहे और अंततः वर्तमान दण्ड संहिता में इनको परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया गया है !
        वर्तमान दण्ड संहिता -- वर्तमान भारतीय दण्ड संहिता  समय और काल के अनुसार बदलती हुई अपने रूप तक पहुंची ! वर्तमान भारतीय दण्ड संहिता का प्रारूप प्रथम विधि आयोग,  जिसके अध्यक्ष लार्ड मैकाले थे, के द्वारा तैयार किया गया ! और इसे सन 1837 में भारत के महाराज्यपाल की परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया गया | महाराज्यपाल ने दिनाँक 7 अक्टूबर 1860 को इस पर सहमति प्रदान कर दी |
            आरम्भ में इसमें कुल 488 धाराएँ थीं लेकिन समय समय पर संसोधनों के द्वारा इसमें वृद्धि होती रही और वर्तमान संहिता में अब कुल 511 धाराएँ हैं ! इसके अलावा बीच-बीच में कई अतिरिक्त धाराएँ भी जोड़ी गई हैं |


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ