( Distinction between cancellation and Rectification)
(1) जब संविदा पूर्ण हो जाती है तब परिशोधन स्वीकार किया जाता है | किन्तु इसकी लिखतें पक्षकारों के अभिप्राय से मिलान नहीं खाती, जबकि निरसन उस समय प्रदान किया जाता है जबकि संविदा शून्य या शून्य होने योग्य होती है |
(2) परिशोधन का आशय है संविदा के लिखत में सुधार या संशोधन जबकि निरसन से स्वयं से संविदा के सफाया की प्रार्थना की जाती है | "साम्या न्यायालय संविदा नहीं करते यद्यपि ये न लिखितों का परिशोधन कर सकते हैं और करते हैं जो संविदा के अनुसार उसके उद्देश्य के लिए बनाई जाती है |" ( जेका दुआई बनाम बाई जीबी, ए० आइ० अर०1938 ) |
(3) जिन आधारों पर निरसन प्राप्त किया जाता है वे उनसे कही अधिक विस्तृत हैं जो परिशोधन के लिए आवश्यक है |
(4) परिशोधन की स्थिति में वादी विशिष्ट संपादन के लिए वैकल्पिक प्रार्थना कर सकता है किन्तु निरसन में विशिष्ट संपादन के लिए प्रार्थना का प्रश्न बिल्कुल नहीं उठता |
(ii) प्रतिसंहरण और विखंडन में अंतर
(1) विखंडन का आशय है जो संविदा अब भी परिवर्तनशील है उसकी समाप्ति करना तथा आरंभ में ही उसे अकृत या शून्य बना देता है | इसके विपरीत किसी अभिलेख के निरसन में अनिवार्यता या अंतर्निहित नहीं है यह अब भी प्रवर्तानशील है और स्पष्टतः यह इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि यह अवैध है |
(2) विखंडन तभी लागू होने योग्य है जबकि संविदा शून्य होने योग्य है अथवा जहाँ इसकी अवैधानिकता शून्यता इसके बाह्य रूप से प्रकट नहीं है | किन्तु निरसन शून्य तथा शून्य होने योग्य दोनों प्रकार की लोखितों में प्रयोज्य है तथा यह साधारण बात है कि शून्यता प्रत्यक्ष है या नहीं |
(3) धारा 35 के अंतर्गत निरसन में जो अनुतोष दिया गया है वह धारा 35 के अंतर्गत विखंडन में प्राप्य अनुतोष की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है | पहले में न्यायालय लोकहित को शून्य किये जाने योग्य विनीर्णीत करता है तथा साथ ही वह इसे हवाले करने तथा निरसन करने का आदेश दे सकता है जबकि बाद वाले न्यायालय केवल विखंडन कर सकता है |
(4) विखंडन केवल संविदा तक सीमित है जबकि निरसन अन्य लिखितों पर भी लागू है जैसे दान तथा उत्तराधिकार पत्र में |
(5) विखंडन की भांति निरसन की यह आवश्यकता नहीं कि यदि अभिलेख अशोधित छोड़ा गया है तो गंभीर क्षति का उचित बोध हो |
(iii) निवारक व्यादेश और आज्ञापक व्यादेश में अंतर
(1) आज्ञापक व्यादेश किसी सकारात्मक कार्य को करने का आदेश दे देता है जबकि निषेधात्मक व्यादेश अपनी प्रकृति से निर्बंधात्मक है |
(2) आज्ञापक व्यादेश को प्रदान करने की प्रार्थना ऐसी परिस्थितियों में की जाती है जबकि स्थायी व्यादेश निरर्थक और प्रभावहीन साबित होता है | इसके विपरीत निषेधात्मक आदेश वाह प्रदान किया जाता है जहाँ वादी की आशंका निष्पन्न के तथ्य के रूप में परिणित हो चुकी है |
(iv)विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 5 और 6 के प्रावधानों में अंतर
(1) धारा 5 इस सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं है कि क्या सरकार के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है या नहीं, परन्तु धारा 6 के अनुसार सरकार के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है |
(2) धारा 5 के अनुसार वादी को अपना बेहतर हक़ साबित करना पड़ता है जबकि धारा 6 के अंतर्गत केवल कब्ज़ा ही डिक्री प्राप्त करने का आधार होता है, स्वत्व साबित करना आवश्यक नहीं होता |
(3) धारा 5 के अंतर्गत बेदखली के लिए नियमित वाद संस्थित करना आवश्यक होता है जबकि धारा 6 के अंतर्गत त्वरित एवं संक्षिप्त प्रक्रिया का प्रावधान है |
(4) धारा 5 के अंतर्गत वाद लाये जाने की मर्यादा अवधि बेदखली से 11 वर्ष के भीतर तक होती है, जबकि धारा 6 के अंतर्गत यह कालावधि बेदखली से मात्र छः माह के भीतर होती है |
Source : CLA
LAW OF CONTRACT - I
THE SPECIFIC RELIEF ACT 1963
DR. RAM MANOHAR LOHIA AWADH UNIVERSITY, AYODHYA
DR. RMLAU, AYODHYA
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