संविधान में मूल अधिकारों की गारंटी
संविधान के निम्नलिखित उपबंधो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये मूल अधिकार संविधान में प्रत्याभूत किये गए हैं --
1.मूल अधिकारों से असंगत अथवा उन्हें छीनने या कम करने वाले कानून बनाने का निषेध -संविधान का अनु० 13 जो स्वयं मूल अधिकारों के साथ उपबंधित किया गया है,राज्य को ऐसी विधि बनाने से वर्जित करता है जो मूल अधिकारों को छीनता हो या कम करता हो | इस खण्ड के उल्लंघन में बनाइ गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी | यह स्थिति संविधान के लागू होने के बाद होगी | [अनु० 13 (2)]
संविधान के लागू होने के पहले की स्थिति में, यदि ऐसी कोई विधि पहले से ही मौजूद है , जो किसी मूल अधिकार से असंगत है , भले ही पूर्ण रूप से या किन्ही विशेष क्षेत्रो में प्रवर्तन में न भी हो,तो वह असंगत होने की मात्रा तक शून्य होगा | [अनु० 13 (1) अनु० 13 (3) (ख)]
विधि के अंतर्गत, अनु० 13 (3) के अनुसार,भारतीय राज्य क्षेत्र विधि के समानप्रभाव रखने वाला कोई भी अध्यादेश (ordinance) ,आदेश (order) ,उप-विधि (bye law ) ,नियम(rule) ,विनियम(regulation) ,अधिसूचना (notification),रूढ़ि या प्रथा (custom and usage)शामिल है |
राज्य के अंतर्गत, अनु० 12 में अप्बंधित परिभाषा के अनुसार यदि प्रसंग से कोई दूसरा अर्थ अपेक्षित न हो तो, भारत की सरकार ,भारत की संसद, राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और राज्य विधान मण्डल और भारतीय राज्य क्षेत्र के अन्दर या भारत सरकार के अधीन स्थानीय या अन्य प्राधिकारी शामिल हैं |
2. न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान किया जाना -- यदि राज्य द्वारा बने गई कोई विधि,अनु० 13 के अर्थ के अंतर्गत, किसी मूल अधिकार असंगत है या किसी मौलिक अधिकार को छीनता है या कम करती है, और इस प्रकार वह अनु० 13 का उल्लंघन करता है, तो ऐसी विधि को अनु० 13 के अंतर्गत केवल निम्नलिखित न्यायालय ही शून्य घोषित कर सकते है --
(1) भारत का उच्चतम न्यायालय (Supreme Court)
(2) राज्यों के उच्च न्यायालय(High Court )
राज्य द्वार बनाई किसी विधि की वैधता या संवैधानिकता की जाँच करने और उसे असंवैधानिक या शून्य घोषित करने की न्यायालय की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति कहलाती है, अनु० 13 द्वारा न्यायालय को प्रदान की गई है |
एल० चन्द्र कुमार बनाम भारत संघ ( AIR 1997 SC 1125 ) के मामले में उच्चतम नाले ने अभिनिर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय में निहित पुनर्विलोकनकी शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है अतः इसे संवैधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है |
3. सांविधानिक उपचारों के लिए उपबंध -- संविधान क अनु० 32 जो स्वयं मूल अधिकारों के साथ संविधान के भाग 3 में उपबंधित किया गया है, पीड़ित व्यक्ति को, अर्थात उस व्यक्ति को जिसके किसी मूल अधिकार का हनन किया गया हो, उच्चतम न्यायालय में अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन करने के लिए याचिका दायर करने का अधिकार प्रदान करता है और साथ ही उच्चतम न्यायालय को भी ऐसे अधिकार के प्रवर्तन के लिए उल्लंघन कर्ता को रिट(Writ-लेख) जारी करने की शक्ति प्रदान करती है | इन लेखों में (1) बंदी प्रत्यक्षीकरण(Habeas Corpus) (2) परमादेश(Mandamus) (3) प्रतिषेध(prohibition) (4) अधिकार पृच्छा(Quo-warranto) या (5 ) उत्प्रेषण(Certiorari) , प्रकृति का कोई भी लेख(Writ) शामिल है जिसे न्यायालय जारी कर सकता है |
रिट अधिकारिता अनु० 226 के अंतर्गत राज्यों के उच्च न्यायालय को भी प्रदान की गई है |
4. मूल अधिकारों पर राज्य द्वारा वे ही निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं, जिनके लिए संविस्धन में उपबंध किये गए हैं --भारत जैसे लोक कल्याणकारी राज्य में संविधान द्वारा मूल अधिकार अत्यान्तिक(absolute) नहीं और समाज तथा देश के व्यापक हित में उन पर निर्बन्धन लगा सकता है | किन्तु उन्ही अधिकारों पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है | जिन आधारों का उल्लेख सम्बंधित मूल अधिकारों के साथ - साथ ही किया गया है और दूसरे यह कि इन निर्बंधनो को युक्तियुक्त होना चाहिए |
निष्कर्ष(Conclusion) -- उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं संविधान मूल अधिकारों को केवल प्रदान ही नहीं करता , बल्कि वह उन्हें गारंटी (प्रत्याभूत ) भी करता है | यदि उन्हें संविधान में भी गारंटी नहीं किया जाता तो कार्य सिद्ध न होते मात्र दिखावा होते |
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