उत्तर - जब किसी द्वारा कोई अपराध कारित कर दिया जाता है तो उसे न केवल समाज द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है अपितु विधि की दृष्टि में भी उसकी स्थिति बदल जाती है, उसकी स्वतंत्रता प्रतिबंधित हो जाती है और वह अपना जीवन खतरे में जानने लगता है | ऐसी परिस्थिति में ही उसे अपनी निर्दोषिता साबित करनी होती है अतः इस उद्देश्य से अभियुक्त को विधि के अंतर्गत कुछ अधिकार, उपचार एवं संरक्षण प्रदान किये गए हैं -
(1)- अभियुक्त की निर्दोषिता का सिद्धांत--- न्याय प्रशासन एवं विधिशास्त्र का एक जाना माना सूत्र एवं सिद्धांत है कि, '' जब तक किसी व्यक्ति को दोष सिद्ध नहीं कर किया जाता तब तक उसके निर्दोष होने की उपधारणा अथवा प्रकल्पना करनी चाहिए | '' न्यायालय किसी व्यक्ति को तभी दोषसिद्ध कर सकता है जबकि अभियोजन पक्ष आरोप को संदेह से परे साबित कर दे | इसका तात्पर्य है कि सभी युक्तियुक्ति संदेहों का लाभ अभियुक्त को मिलना चाहिए / यह सिद्धांत इस आपराधिक नीति पर आधारित है कि कई दोषी व्यक्तियों को छोड़ देना एक निर्दोष व्यक्ति को दण्डित करने से श्रेयष्कर है |
इस नियम के अनेक अपवाद हैं --
(a) एसे सांविधिक अपराध जिनके पूर्णयन हेतु दुराशय आवश्यक है | ऐसे अपराधों में दायित्व के अनुपालन मात्र से ही अभियुक्त के दोषी होने की अवधरणा कर ली जाती है
(b) अभियुक्त की पूर्व दोष सिद्ध उसके विरुद्ध किसी मामले में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है | दण्ड संहिता की धारा 75 के अंतर्गत पूर्व दोषसिद्ध को एक निश्चित सीमा तक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है , किन्तु यह साक्ष्य तभी न्यायालय द्वारा स्वीकार किया जाएगा जब अभियुक्त विचाराधीन अपराध के दोषी पाया जाता है |
साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 यह उपबंधित करती है कि __
"जबकि कोई व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त है , तब उन् परस्थितियों के अस्तित्व को साबित करने का भार , जो उस मामले को भारतीय दण्ड संहिता , 1860 के साधारण अपवादों में से किसी के अंतर्गत या उसी संहिता के किसी अन्य भाग में , या उस अपराध कि परिभाषा करने वाली किसी विधि में अंतर्विष्ट किसी विशेष अपवाद पर परंतुक के अंतर्गत कर देती है , उस व्यक्ति पर है और न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव कि उपधारणा करेगा |"
निर्दोषिता से सम्बंधित विधि की विस्तृत व्याख्या न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने के. एम.नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य, A.I.R. 1962, S.C.605 के वाद में कि थी | इस मामले में यह कहा गया था कि अभियुक्त के दोष को सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पर रहता है या अभियुक्त को तब तक निर्दोष समझना चाहिए जब तक उसका अपराध सिद्ध नहीं हो जाता |
(2) दोहरे खतरे में सुरक्षा का सिद्धांत --- अभियुक्त को उपलब्ध यह दूसरा महत्वपूर्ण संरक्षण है | इसके अनुसार 'Doctrine of double jeopardy ' के नाम से भी जाना जाता है | यह सिद्धांत इंग्लिश विधि के प्रसिद्ध सूत्र 'nemo debet proeadem causa bis vexare ' पर आधारित है | भारत में यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 20(2) तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 300 की उपधारा (1) में उपबंधित है तथा इस नियम को सांविधिक मान्यता सामान्य खण्ड अधिनियम (Tha General Clasuses Act) 1897 की धारा 26 द्वारा प्रदान कि गयी है |
अनुच्छेद 20(2) उपबंधित करता है कि 'किसी भी व्यक्ति को उसी अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजन एवं दण्डित नहीं किया जायेगा |"
कलावती बनाम हिमांचल प्रदेश राज्य, A.I.R. 1953, S.C. 131 के मामले उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 20(2) के संरक्षण के लिए तीन आवश्यक शर्तें हैं___
- व्यक्ति का अभियुक्त होना आवश्यक है ;
- अभियोजन या कार्यवाही किसी न्यायालय के समक्ष चली हो और वह न्यायिक प्रकृति की रही हो ; तथा
- अभियोजन उस विधि से सम्बंधित होना चाहिए जो अपराध का गठन करती है और दण्ड का प्रावधान करती है |
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