उत्तर- मत्तता के आधार पर बचाव - प्राचीन काल में मत्तता की स्थिति को अपराध की वृद्धि का एक कारण समझा जाता था, जिसके लिए कठोर दण्ड दिया जाता था | पागलपन जहाँ एक बीमारी है, जिस पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नही होता, वहीँ नशा करना एक बुराई है जो व्यक्ति स्वेच्छा से करता है | अतः प्राचीन काल में विकृत चित्तता के मामले में सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाता था, परन्तु वर्तमान समय में अस्वेछिक मत्तता के आधार पर भी उन्मुक्ति प्रदान की जाती है | इस स्थिति को भारतीय दण्ड संहिता में उपबंधित किया गया है |
संहिता की धारा 85 के अनुसार - कोई व्यक्ति यदि किसी कार्य को करते समय मत्तता के कारण यह जानने में असमर्थ हो | तो वह कार्य अपराध नहीं होता |
परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वह चीज जिससे मत्तता हुई थी स्वयं उसके ज्ञान के बिना या इच्छा के विरुद्ध दी गई थी |
इस प्रकार धारा 85 के अन्तर्गत केवल निम्नलिखित स्थितियों में ही किसी व्यक्ति को मत्तता के आधार पर आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति मिल सकती है --
- यह कि, अभियुक्त अपराध करते समय मत्तता से ग्रस्त हो और इस कारण ;
- वह अपने द्वारा किए जा रहे कार्य की प्रकृति जानने में असमर्थ हो, अथवा;
- यह कि, जो कुछ वह कर रहा है, वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है; और
- वह चीज, जिससे उसको मत्तता हुई थी उसको अपने ज्ञान के बिना या इच्छा के बिना दी गई हो |
प्रसिद्ध विधिशास्त्री सर एडवर्ड कोक का अभिमत है कि एक मत्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छया मत्तता ग्रहण की है, विधि के अधीन किसी भी प्रकार की सुविधा का अधिकारी नहीं है, क्योंकि उसकी मत्तता उसके द्वारा किए गए अपराध को और भी उत्तेजक बना देती है |
डी.पी.पी. बनाम बर्ड, 1920 A.C. 479 के मामले में एक तेरह वर्ष की एक बालिका को उसके पिता ने सायंकालीन बेला में खरीद फरोख्त करने के लिए बाजार भेजा था | जब वह एक मिल के मुख्य द्वार के समीप से जा रही थी तो बर्ड नामक मिल के चौकीदार ने उसको पकड़ लिया और उसके साथ बलात्कार करने का प्रयास किया | जब लड़की ने प्रतिरोध किया तो अभियुक्त ने अपना एक हाथ लड़की के मुँह पर रख दिया तथा दूसरे हाथ का अंगूठा उसके गले पर रखकर दबाया ताकि लड़की शोर न मचा सके जिसके परिणामस्वरूप लड़की की मृत्यु हो गई | कोर्ट ऑफ क्रिमिनल अपील ने उसे मानव वध का दोषी माना, परन्तु हाउस ऑफ लार्ड्स ने उसे मृत्युदण्ड से दण्डित किया |
इस प्रकरण में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए :
- अपराध को क्षम्य बनाने के लिए यह स्थापित करना मात्र ही पर्याप्त नहीं है कि अभियुक्त का चित्त मदिरा पान से इतना अव्यवस्थित हो गया था कि वह हिंसात्मक आवेश को रोक नहीं सका |
- यदि शराब पीने के कारण वास्तविक उन्मत्तता आ जाती है तो वह उसी प्रकार अपराध का पूर्ण अभिवाक होगा जैसे कि उन्मत्तता शराब से न उत्पन्न होकर किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुई हो |
- ऐसे किसी मामले में, जिसमे मत्तता को प्रतिरक्षा का अभिवाक बनाया गया है उन्मुक्ति की परख इस मामले की अपेक्षा अधिक कठोर है, जिससे उन्मत्तता को प्रतिरक्षा का अभिवाक बनाया गया है | मत्तता के प्रतिवाद में न्यायाधीश को जूरी से यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि क्या अभियुक्त यह जनता था कि वह दोषपूर्ण कार्य कर रहा था |
- ऐसी मत्तता का साक्ष्य, जिसके कारण अभियुक्त के मस्तिष्क में अपराध का ऐसा विनिर्दिष्ट आशय नहीं बन सकता , जो कि अपराध की रचना का एक आवश्यक तत्त्व है | अन्य साबित किए गए तथ्यों के साथ विचार में रखा जाना चाहिए ताकि इस बात का अभिनिर्णय किया जा सके कि क्या अभियुक्त का ऐसा आशय था अथवा नहीं, इस तरह के मामले में मत्तता , यदि अपराध के आवश्यक मानसिक तत्व के अनुरूप नहीं है अपराध का घटित होना नकार देती है |
देदेकूला खवाला साहब बनाम राज्य 1996 Cr. L.J. 2196 आन्ध्र प्रदेश के मामले में अभियुक्त एवं मृतक दोनों ही शराब के नशे में झगडा करने लगे अभियुक्त ने मृतक को पीटा तथा वह उसे खींचकर ले जा रहा था | मृतक की पत्नी और पुत्र को अपनी ओर आता हुआ देखकर निहत्थे अभियुक्त ने एक पत्थर से अभियुक्त के सिर पर प्रहार किया | जिससे उसकी मृत्यु हो गई | आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 304 के प्रथम भाग के अधीन दोषसिद्ध करते हुए यह स्पष्ट किया कि स्वेच्छया शराब पीकर अपराध करना संहिता की धारा 85 के अधीन विधिमान्य प्रतिरक्षा नहीं है |
संहिता की धारा 86 के अनुसार, उन् दशाओं में, जहाँ कि कोई किया गया कार्य अपराध नहीं होता जब तक कि वह किसी विशिष्ट ज्ञान या आशय से न किया गया हो, जो वह कार्य मत्तता की हालत में करता है, इस प्रकार बरते जाने के दायित्व के अधीन होगा मनो उसे वही ज्ञान था जो उसे होतायदि वह मत्तता में न होता जब तक कि वह चीज, जिससे उसे मत्तता हुई थी, उसे उसके जान के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध न दी गई हो |
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 86 के सम्बन्ध में वासुदेव बनाम पेप्सू राज्य A.I.R. 1956 S.C. 488 का मामला महत्वपूर्ण है इस मामले में अभियुक्त एक अवकाश प्राप्त सैनिक कर्मचारी था | एक बार गांव की बारात में वह बधू के घर भोजन करने गया | उन् बारातियों में मगहर सिंह नमक एक पन्द्रह सोलह-वर्षीय लड़का भी था | अभियुक्त ने भोजन के समय मगहर सिंह से थोडा हटकर बैठने को कहा ताकि वह भी बैठ सके, परन्तु मगहर सिंह वहाँ से हटा नहीं | अभियुक्त उस समय अत्यधिक शराब पिए हुए था | अतः क्रोश एवं नशे में उसने पिस्तौल निकलकर लड़के को गोली मार दी | जो उसके पेट में लगी और परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई |
सेशन न्यायाधीश ने उसके नशे में होने तथा मार डालने के पूर्व चिंतन के किसी हेतु की अनुपस्थिति को ध्यान में रखकर अभियुक्त के विरुद्ध आजीवन कारावास का दण्डादेश पारित किया जिसे उच्च न्यायालय ने अनुमोदन कर दिया | उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न पर अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान की, कि क्या अभियुक्त का अपराध दण्ड संहिता की धारा 86 के सन्दर्भ में धारा 302 के अधीन आता है अथवा धारा 304 के अधीन आता है | उच्चतम न्यायालय ने इंग्लिश न्यायालयों द्वारा निर्णीत मामलों का पुनर्विलोकन करते हुए, जिसमे डी.पी.पी. बनाम बर्ड का भी मामला सम्मिलित था और जिसे न्यायालयों द्वारा अनुमोदित भी किया गया था, यह निष्कर्ष व्यक्त किया कि अपीलकर्ता का कार्य हत्या था और वह धारा 302 के अधीन दण्डनीय था न कि धारा 304 के अधीन |
डॉ. एच.एच. गौड़ ने मत्तता से सम्बंधित भारतीय विधि को संक्षिप्ततः निम्नवत प्रस्तुत किया है ---
- अस्वेच्छिक मत्तता अर्थात वह मत्तता जो किसी व्यक्ति के ज्ञान अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध कारित की गई है , क्षम्य है |
- स्वेच्छया मत्तता केवल तब क्षम्य है , जब कोई कार्य केवल तब अपराध है जब वह कार्य किसी अपेक्षित आशय के साथ किया गया हो |
- परन्तु स्वेच्छया मत्तता किसी ऐसे अपराध के सम्बन्ध में क्षम्य नहीं है , जो कि आशय से भिन्न केवल ज्ञान की उपस्थिति की अपेक्षा करती है |
- किसी भी मामले में, यद्यपि ज्ञान के सन्दर्भ में स्वेच्छिक मत्तता क्षम्य नहीं है | परन्तु इसका अभिप्राय उस वास्तविक ज्ञान से नहीं है, जिससे अवधारित आशय का निष्कर्ष निकल सके |
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