Ticker

6/recent/ticker-posts

प्रश्न- भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत विकृतचित्तता कहाँ तक बचाव के रूप में उपलब्ध है ?

 उत्तर- विकृतचित्त व्यक्ति को उन्मुक्ति-- सामान्यतया किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए दोषी ठहराने हेतु उसका आपराधिक आशय स्पष्ट करना आवश्यक होता है | आपराधिक आशय का अभाव किसी व्यक्ति में पर्याप्त मानसिक क्षमता का अभाव, अपरिपक्व आयु या मस्तिष्कीय दोष के कारण हो सकता है | जब ऐसा दोष किसी मस्तिष्कीय रोग के कारण व्युत्पन्न होता है तो वह व्यक्ति विकृत चित्त कहा जाता है | अतः वे व्यक्ति जो स्वाभाविक अयोग्यता के अन्तर्गत अच्छाई  और बुराई में भेद नहीं कर सकते हैं ; जैसे -शिशु ,विक्षिप्त व्यक्ति , वे किसी भी आपराधिक अभियोजन द्वारा दण्डनीय नहीं हैं | 

   

        धारा 84 के अन्तर्गत -- कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो उसे करते समय चित्त विकृति के कारण उस कार्य कि प्रकृति , यह कि जो कुछ कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है जानने में असमर्थ है |

        प्रसिद्ध विधिशास्त्री डा. एच . एस .गौर  का अभिमत है कि पागल व्यक्ति की अपनी कोई स्वतन्त्र  इछा नहीं होती है अतः उसे सात वर्ष से कम आयु के किसी शिशु से भिन्न स्थिति में नहीं रखा जा सकता , क्योंकि सात वर्ष  से कम आयु का शिशु तो कम से कम अपने आवेगों का शिकार होता है | अतः उसके कार्य उतने ही अस्वैक्चिक होते हैं जितने कि वे प्रज्ञाविहीन होते हैं | अतः इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है   कि कार्य करते समय उसकी मनःस्थिति आपराधिक होती है , क्योंकि उसका मस्तिष्क ही अपना नहीं होता है | अतः हर युग में उसे करुणा और दया का पात्र समझा गया है | परन्तु चूँकि , समाज की झक्की और सनकी व्यक्तियों से रक्षा करनी होती है , अतः दण्ड प्रक्रिया संहिता में इस हेतु उसके निरोध का उपबन्ध किया गया है , परन्तु उसका निरोध दण्डादेश नहीं है |

        विकृत चित्त व्यक्ति को चार प्रकार की श्रेणियों में रखा गया है ---

        (1 ) जड़ या मूड ;

        (2) पागल ;

        (3) मदोन्मत्त व्यक्ति ;

        (4) बीमारी के कारण विकृत चित्त |

        मैकनाटन  (1843) के मामले में विकृत चित्तता से सम्बंधित विधि का विस्तार विवेचन किया गया है | इस मामले में अभियुक्त मैकनाटन की यह धाराना थी कि कुछ व्यक्तियों का दल उनका पीछा करता था , निंदा करता था और उन्हें मिलने वाली जगहों और नौकरियों में बाधा उपस्थित करता था | एक दिन उनहोंने इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर रोबर्ट पील के निजी सचिव को गोली मार दी उनहोंने उसे इंग्लैंड का प्रधानमंत्री सर रोबर्ट पील समझकर गोली मारी क्योंकि उन्हीं को वे अपने दुर्भाग्य का कारण मानते थे अभियुक्त ने अपने बचाव में पागलपन का अभिवचन प्रस्तुत किया तथा चिकित्सकीय प्रमाणों ने यह दर्शाया कि मैकनाटन विकृत भ्रम से पीड़ित था जिसके कारण वह नियंत्रण की शक्ति को खो बैठा था | अभियुक्त को न्यायालय ने पागलपन के आधार पर आरोप से मुक्त कर दिया | 

    इस निर्णय कि कड़ी आलोचना हुई और हॉउस ऑफ लार्ड्स में भी यह विवाद का विषय बन गया | इसके परिणामस्वरूप हॉउस ऑफ लार्ड्स ने 15न्यायाधीशों के समक्ष कुछ प्रश्न रखे जिनका उत्तर उन्हें देने को कहा गया | इन्हीं प्रश्नों तथा उनके जवाबों को मैकनाटन के नियमों से जाना जाता है जोकि पागलपन से सम्बंधित आधुनिक विधि का अधार है मैकनाटन के मामले में न्यायाधीशों ने जो निर्णय दिया था , उससे निन्मलिखित सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं ---

  1. यह कि हर व्यक्ति के लिए तब तक यह उपधारण की जानी चाहिए कि वह स्वस्थ चित्त है जब तक कि जूरी अथवा न्यायालय इस उपधारणा के विरुद्ध निर्णय ना दे दें |
  2. यह कि उन्मत्तता के आधार पर प्रतिवाद स्थापित करने हेतु यह आवश्यक है कि अभिकथित कार्य करते समय अभियुक्त में चित विकृत्ति के कारण इस प्रकार की समझ की कमी थी कि उस कार्य की प्रकृति तथा गुणों को नही जान सकता था जिसे कि वह कर रहा था अथवा यदि वह उसको जान सकता था तो वह यह नहीं जानता था कि जो कुछ वह कर रहा है, वह दोषपूर्ण है |
  3. यह कि यदि अभियुक्त को इस बात का आभास था कि उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य सामाजिक मान्यताओं अथवा देशीय विधि के विरुद्ध है, तो वह दण्ड का पात्र माना जायेगा |
  4. यह कि चिकित्सक को जिसने कि अभियुक्त को विचारण के पूर्व कभी नहीं देखा है , साक्षी के रूप में यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि क्या साक्ष्य के आधार पर उसकी राय में अपराध करते समय अब्बियुक्त उमुक्त था ?
  5. यह कि एक व्यक्ति किसी आपराधिक कार्य को उपस्थित तथ्यों की भ्रान्ति के अन्तर्गत कारित करता है, जो उसके द्वारा किए जा रहे कार्य की वास्तविक प्रकृति को उससे छुपा लेते हैं तो उसके दायित्व की मात्रा वही होगा जैसा कि तथ्यों के आधार पर हुई होती या उसकी कल्पना के अनुसार होना चाहिए |
        मैकनाटन का उपर्युक्त नियम भारत सहित विश्व की अनेक दण्ड संहिताओं में समाविष्ट किया जा चुका है | भारतीय दण्ड संहिता की धारा 84 के अनुसार "ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई कोई बाट अपराध नहीं है जो उसे करते समय विकृत चित्तता के कारण उस कार्य की प्रकृति या यह कि वह जो कार्य कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि विरुद्ध है, जानने में असमर्थ है |"
        इस धारा में प्रयुक्त 'दोषपूर्ण' शब्द का तात्पर्य केवल विधिक दोष है न कि सदाचारी दोष, तथा 'विधि के प्रतिकूल' पदावली से तात्पर्य देश की विधि के प्रतिकूल है | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विकृत चित्तता को सिद्ध करने का भार अभियुक्त पर ही होता है |
        परन्तु इस भार का प्रश्न केवल तभी उत्पन्न होता है , जबकि अभियोजन असफलता के कारण स्वतः दोषमुक्त हो गई हो | इस प्रकार की अवधारणा पारामल रमन बनाम केरल राज्य Cr.L.J. 1992, 176 के मामले में व्यक्त की गई |
        लक्ष्मण का मामला  (1860) 10 बम्बई, 512 में स्पष्ट होता है कि इसमें अभियुक्त को बुखार आता था उससे उसे आवेश आता था तथा आवेग की अवस्था में वह व्यग्र हो जाता था | एक दिन उसने अपने बच्चे की हत्या कर दी, क्योंकि उसके रोने से उसे चिढ़ पैदा हुयी  | जब उसने उसकी हत्या की उस वक्त उसे आवेश नहीं आया था और उसे ज्ञान था कि वह क्या कर रहा है | उस पर सदोष मानव वध का मुकदमा चलाया गया तो उसने बचाव में मानसिक अवस्था का तर्क प्रस्तुत किया | यह तर्क दिया कि वह हत्या का दोषी था |

धारा 84 में निविष्ट संघटको का विवेचन नीचे प्रस्तुत है :
        (1) कार्य करने के समय विकृत चित्त हो - धारा 84 के अधीन चित विकृत्त के अभिवाक का लाभ केवल तब मिल सकता है जबकि अभियुक्त अपराध कार्य करने के समय विकृत चित्त हो | पहले अथवा बाद की विकृत चित्तता बचाव का आधार नहीं हो सकती | 
        पंजाब राज्य बनाम मोहिंदर सिंह , (1983) 2 S.C.C. 274 के मामले में अभियुक्त द्वारा हत्या करने के पूर्व और उसके पश्चात् दो चिकित्सकों द्वारा उसकी परीक्षा की गई थी और उसे दिमागी बीमारी से ग्रस्त पाया गया | उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्ति प्रदान की गई वह उचित है |
        अमृत भूषण गुप्ता बनाम भारत संघ  (1977) 1 S.C.C. 100 के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया कि यदि कोई अभियुक्त अपराध करते समय विकृत चित्त नहीं है, परन्तु बाद में दोषसिद्ध या दण्डादेश पारित हो जाने के बाद वह इससे ग्रस्त हो जाता है तो क्या न्यायालय द्वारा अधिरोपित दण्ड से उसे मुक्त किया जा सकता है ? उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसे दोषसिद्धि व्यक्ति पर चित विकृत्ति से ग्रस्त हो जाने में बाद भी मृत्युदण्ड का अधिरोपण किया जा सकता है |
        (2) चित्त विकृति का अभिप्राय- धारा 84 के अधीन चित्त-विकृति केवल उस समय प्रासंगिक है, जब अभियुक्त द्वारा अपराध कार्य किया गया हो | प्रसिद्ध विधि शास्त्री स्टीफेन के अनुसार, चित्त विकृति का तात्पर्य पागलपन अथवा उन्मत ही है | इसका तात्पर्य मस्तिष्क की वह दशा है, जिसमें किसी रोग या चेतना विकार के परिणामस्वरूप अनुभव, जानकारी, मनोविचार और इच्छा या तो स्वाभाविक ढंग से कार्य करने लगते हों अथवा बिल्कुल ही कार्य करना बंद कर दें |
        (3) कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थता - धारा 84 के अधीन चित्त विकृति का मापदंड यह है कि अपराध करते समय अभियुक्त चित्त विकृति के कारण कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थ हो | यहाँ "कार्य की प्रकृति" अभिव्यक्ति का तात्पर्य कार्य का बाहरी लक्षण है जिसका अभिप्राय है -- अभियुक्त का कार्य तथा उस कार्य के साथ सम्बद्ध उसकी मानसिक स्थिति |
    सर जेम्स स्टीफेन ने इस अभिव्यक्ति को  समझाने के लिए एक आश्चर्यकारी दृष्टान्त दिया है | उनके अनुसार एक जद्मूर्ख ने एक सोते हुए व्यक्ति का सिर काटकर धड से अलग इसलिए कर दिया , क्योंकि वह कटे हुए सिर को कहीं छिपाकर और स्वयं छिपकर यह तमाशा देखना चाहता था कि जग जाने पर व्यक्ति अपने सिर को खोजता फिरेगा और परेशां होगा | इस मामले में यह बात की सम्भावना थी कि वह जद्मूर्ख इतना तो अवश्य जनता था कि सोता हुआ व्यक्ति अपने सिर को अपने कब्जे में रखने का अधिकारी है और संभवतः वह इस बात की आशंका से भयभीत था कि यदि वह चिप नहीं जायेगा तो जाह जाने पर वह व्यक्ति अपना सिर अपने पास ना पाकर उसे भी सजा दे सकता है और हो सकता है कि वह उसे पुलिस के सपुर्द कर दे | परन्तु यहाँ तो निश्चित नहीं था कि वह जद्मूर्ख यह नहीं जनता था कि उसके तमसे की वहीँ समाप्ति हो जायेगी , क्योंकि सिर कट जाने पर सोने वाला व्यक्ति भीर कभी जाग नहीं पायेगा |
हिमांचल  प्रदेश राज्य बनाम ज्ञान चंद  2001 Cr.L.J. 2548 S.C. के मामले में अभियुक्त ने जोकि अभियोक्त्री की माँ के ससुराल पक्ष का था , ने पांच वर्षीय अभियोक्ट्री के साथ बलात्संग का अपराध किया | विचरण न्यायालय ने अपनी जाँच के दौरान यह पाया कि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ था | अतः उसके विरुद्ध विचरण किया गया | उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि अभिलेख में प्राप्त सामग्री से प्रथम दृष्टया भी यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त विक्रित्चित्तता से ग्रसित था और वह भी इस प्रकार की विक्रित्चित्तता से जिससे वह अपने कार्य के प्रकृति को ना समझ सके या यह ना सके कि उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य दोषपूर्ण या विधि विरुद्ध था | 
    (4) दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल ---धारा 84 केधीन अपवाद का लाभ पाने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि अपराध करते समय अभियुक्त यह जानने में आसमर्थ था कि जो कुछ वह कर रहा है वह धश्पूर्ण है या विधि के प्रतिकूल है | 
    हजारा  सिंह का मामला , A.I.R. 1958 पंजाब  108 के मामले में अभियुक्त अपनी पत्नी की घोर चरित्रहीनता के कारण एक सशक्त मतिविभ्रमता से पीड़ित चल रहा था | इस मतिविभ्रमता के परिणाम स्वरूप उसमे अस्थायी रूप से पागलपन का दौरा आ जाया करता था | अपनी पत्नी की अपवित्रता  की तीव्र भावना से व्यग्र होकर उसने एक रात , जब वह सो रही थी , नाइट्रिक एसिड छोडकर उसकी मृत्यु कारित कर दी | चिकित्सिये साक्ष्य  इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह प्रदर्शित कर रहे थे कि वह यह जानने में समर्थ था कि वह क्या कर रहा है और अपराध करते समय उसे 'ठीक और गलत ' की अवधारणा का साधारण ज्ञान था | न्यायालय ने उसे अपनी पत्नी की मृत्यु कारित करने का दोषी माना और धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि प्रदान की |

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ