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प्रश्न- सम्मति से आप क्या समझते हैं? भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत सम्मति को कब और किन मामलों में बचाव के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ?

 उत्तर- साम्य विधि का यह नियम है कि --He who consents, suffers no injury अर्थात जो संपत्ति देता है उसे कोई क्षति नहीं होती | इसी प्रकार, रोमन विधिशास्त्र की एक पुरानी उक्ति है --Volenti non fit injuria अर्थात सम्मत कार्य से क्षति नहीं होती यह उक्ति निम्नलिखित प्रतिपादनों (Propositions) पर आधारित है --



1. यह की प्रत्येक व्यक्ति अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक  होता है ; तथा 

2. यह कि कोई भी व्यक्ति उस बात की सम्मति नहीं दे सकता , जिसको वह स्वयं अपने लिए हानिकारक समझता है

परन्तु सहमति को संहिता में कहीं भी परिभाषित  नहीं किया गया है | संहिता की धारा 90 में केवल यह बताया गया है कि कौन -सी बात सहमति है |

धारा 90 के अनुसार , कोई सहमति वैध सहमति नहीं है ; यदि वह --

(1) किसी व्यक्ति द्वारा क्षति के भय के अधीन दी जाती है ; अथवा 

(2) किसी व्यक्ति द्वारा तथ्य के भ्रम के कारण दी जाती है ; अथवा

(3) किसी विकृत चित्त व्यक्ति द्वारा दी जाती है ; अथवा 

(4) किसी नसे के अधीन व्यक्ति द्वारा दी जाती है ; अथवा 

(5) बारह वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति द्वारा दी जाती है |

उपर्युक्त संख्या (1) तथा (2) (भय तथा तथ्य के भ्रम के अधीन सम्मति ) के लिए यह आवश्यक है की सहमति प्राप्ति करने वाला व्यक्ति इस बात को जानता हो या विश्वास करने का कारण रखता हो जब अन्य के लिए यह आवश्यक है की सहमति देने वाला व्यक्ति उस कार्य की जिसके लिए उसने सहमति दी है , प्रकृति एवं परिणाम को समझने में असमर्थ हो |

विलियम्स (1923) K.B.340 के मामले में अभियुक्त एक सोलह वर्षीय लड़की को गाने की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया गया था | अभियुक्त ने उस लड़की के साथ इस प्रपंचनापूर्ण अभिकथन से मैथुन किया कि वह उसके गले के स्वर को सुरीला बनाने के लिए एक छोटी -सी शल्य क्रिया कर रहा है |न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की लड़की की सहमति वैध नहीं थी तथा इस तथ्य के भ्रम के अधीन दी गई थी कि जो कुछ भी किया जा रहा है | अतः अभियुक्त बलात्कार के लिए माना गया |

जयंती रानी फंडा बनाम राज्य, 1984 Cr.L.J. 1535 (कलकत्ता ) के मामले में प्रश्न यह था कि क्या अभियुक्त ने परिवादी के साथ बलात्संग  किया है ?अभियुक्त का परिवादी के घर में काफी आना जाना था | धीरे-धीरे अभियुक्त और परिवादी एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने लगे | अभियुक्त ने यह दर्शाया कि वह परिवादी के साथ विवाह कर लेगा | उनके बीच लैंगिक सम्बन्ध स्थापित हो गए | जब परिवादी के गर्भ ठहर गया तो उसने अभियुक्त पर यह दबाव डाला कि वह उससे तुरंत विवाह करे, जबकि अभियुक्त ने परिवादी को गर्भपात कराने का सुझाव दिया जिसके लिए वह सहमति नहीं थी | यह अवधारित किया गया कि कि अभियुक्त बलात्संग का दोषी नहीं था क्योंकि अभियोक्त्री ने अभियुक्त के साथ लैंगिक सम्बन्ध का सिलसिला अपनी स्वतंत्र सम्मति से बनाए रखा था, और धारा 90 को तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि संदेह से परे यह शाबित नहीं हो जाता कि वह दोनों के बीच लैंगिक सम्बन्ध स्थापित होने के प्रारंभ से ही अभियुक्त का आशय परिवादी के साथ विवाह करना नहीं था |

सम्मति से सम्बंधित विधि का वर्णन संहिता की धारा 87 से 91 तक में किया गया है --

(1) कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहित का आशय न हो और ना ही उसकी संभाव्यता हो --

संहिता की धारा 87 ऐसे व्यक्ति को आपराधिक उत्तरदायित्वा के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है जिससे किसी 18 वर्ष से अधिक आयु के किसी दूसरे व्यक्ति को उसकी संपत्ति से कोई कार्य करके बिना किसी आशय अथवा इस ज्ञान से उपहित पहुंचाई हो कि उस कार्य की संपत्ति देने वाले व्यक्ति कि मृत्यु अथवा घोर उपहित हो सकती है |

दृष्टान्त --A और B आमोदार्थ आपस में पट्टेबाजी करने को सहमत होते हैं | इस सहमति में किसी अपहानि को , जो ऐसी पट्टेबाजी में खेल के नियम विरुद्ध ना होते हुए कारित हो , उठाने कि हर एक की सम्मति विवक्षित है और यदि 'A' यथानियम पट्टेबाजी करते हुए B को उपहति कारित कर देता है तो Aकोई अपराध नहीं करता है |

निम्नलिखित परिस्थितियों में सम्मति द्वारा कारित कार्य के परिणामस्वरूप मृत्यु या घोर उपहति के अपराध घटित होने पर अभियुक्त द्वारा कारित अपराध को प्रशमित किया जा सकता है --

1. संहिता की धारा 300 के अपवाद 5 के अनुसार , यदि 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति की उसकी सम्मति पर मृत्यु कारित कर दी जाये तो अभियुक्त हत्या की कोटि में ना आने वाले आपराधिक मानव वध का दोषी माना जायेगा |

2. धारा 314 किसी ऐसे व्यक्ति के दण्ड को प्रशमित करने की व्यवस्था करती है जिसने किसी गर्भवती स्त्री की सम्मति से गर्भपात कारित करने के आशय से उसकी मृत्यु कारित की हो |

3. विधि ऐसे व्यक्ति के दण्ड को भी प्रशमित करने की व्यवस्था करती है जिसने आशय अथवा ज्ञान के बिना उस व्यक्ति की मृत्यु कारित कर दी हो जिसने किसी ऐसे खतरनाक प्रकृति के कार्य को करने की सहमति दी थी जिससे अनुसरण में किए गये कार्य के परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई हो |

4. इसी प्रकार , आत्महत्या के समझौते में उत्तरजीवी को हत्या की कोटि में ना आने वाले आपराधिक मानव वध के लिए ही दण्डित किए जाने की व्यवस्था है |

        (2) सम्मति के हितबद्ध व्यक्ति के फायदे के लिए कार्य करना -- किसी व्यक्ति की सम्मति से उसके फायदे के लिए सद्भावनापूर्वक कारित किए गये कार्य के परिणामस्वरूप कोई कार्य अपराध नहीं है यदि ऐसे कार्य के परिणास्वरूप उस व्य्स्क्ति द्वारा अभियुक्त अथवा विवक्षित सम्मति के अधीन कोई अपहानि सहन करने की सम्मति ऐसे व्यक्ति ने दे दी थी और यदि ऐसे कार्य के परिणास्वरूप आशय या ज्ञान के बिना उस व्यक्ति की मृत्यु या घोर उपहति हो जाती है तो विधि संहिता की धारा 88 के अधीन उसके कार्य को प्रशमित करती है |

        सूरजबली 28 A.W.N. 566 के मामले में एक महिला की आंख का आपरेशन किया गया था जिससे उसकी ज्योति चली गई थी | यह सिद्ध किया गया कि आपरेशन रोगी की सहमति से तथा सद्भावनापूर्वक उसके हित के लिए किया गया था | उसका आपरेशन मान्यता प्राप्त भारतीय आपरेशन पद्धति के अनुसार किया गया था | न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई अपराध कारित नहीं हुआ तथा वह संहिता की धारा 88 के अन्तर्गत बचाव करने का हक़दार है | ऐसे व्यक्ति जो मेडिकल प्रैक्टिशनर्स के रूप में योग्यता प्राप्त नहीं है वे इस धारा के लाभ उठाने के हक़दार नहीं है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सद्भावनापूर्वक कार्य किया है |

        (3) संरक्षक की सम्मति- धारा 89 के अनुसार, कोई अपहानि इस कारण अपराध नहीं है जो किसी इस व्यक्ति के कारित होने में हुई हो जिसके लिए 12 वर्ष से कम आयु के अथवा विकृत चित्त व्यक्ति के फायदे के लिए उनके संरक्षक ने अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से सद्भावनापूर्वक सहमति दी थी |

यह धारा निम्नलिखित परंतुकों के अधीन मानी जाती है :

पहला: इस अपवाद का विस्तार साशय मृत्यु कारित करने या मृत्यु कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा |

दूसरा: इस अपवाद का विस्तार मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए किसी ऐसे बात के करने पर न होगा जिसे करने वाला व्यक्ति जनता हो कि इससे मृत्यु कारित होना संभाव्य है |

तीसरा: इस अपवाद का विस्तार स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने , घोर उपहति कारित करने का प्रयत्न करने पर न होगा जब तक कि वह मृत्यु या घोर उपहति के निवारण के या किसी घोर रोग या अंग शैथिल्य से मुक्त करने के प्रयोजन से न की गई हो |

चतुर्थ: इस अपवाद का विस्तार किसी ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण पर न होगा जिस अपराध के किए जाने पर इसका विस्तार नहीं है |

दृष्टान्त :- 'A' सद्भावनापूर्वक अपने शिशु के फायदे के लिए अपनी शिशु की सम्मति के बिना, यह कि शल्यकर्म से उस शिशु की मृत्यु कारित हो सकती है, न कि इस आशय से कि उस शिशु की मृत्यु कारित कर दे | शल्य चिकित्सक द्वारा पथरी निकलवाने के लिए अपने शिशु की शल्य क्रिया करवाता है , 'A' का उद्देश्य शिशु को रोगमुक्त करना था इसलिए वह इस अपवाद के अन्तर्गत आता है |

        (4) ऐसे कार्यों का अपवर्जन जो कारित अपहानि के बिना भी स्वतः अपराध है - धारा 91 के अनुसार, धारा 87, 88 और 89 के अपवादों का विस्तार उन् कार्यों पर नहीं है जो उस अपहानि के बिना भी स्वतः अपराध हैं जो उस व्यक्ति को जिसे इन कार्यों के होने या किए जाने अथवा कारित होने की संभाव्यता हो तथा जो सम्मति देता है या जिसके ओर से सम्मति दी जाती है |

        दृष्टान्त- गर्भपात करना (जब तक कि उस स्त्री का जीवन बचाने के प्रयोजन से सद्भावनापूर्वक कारित न किया गया हो ) किसी अपहानि के बिना भी जो उससे उस स्त्री को कारित हो या कारित करने का आशय हो स्वतः अपराध है इसलिए वह 'ऐसी अपहानि के कारण' अपराध नहीं है और ऐसा गर्भपात कराने की उस स्त्री की या उसके संरक्षक की सम्मति उस कार्य को यायानुमत नहीं बनाती |

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