उत्तर- यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक कार्य के लिए उत्तरदायी बनाने हेतु उसकी आपराधिक मनः स्थिति साबित करनी आवश्यक है जब तक कि विधि में इसके विपरीत कोई प्रावधान स्पष्ट रूप से न घोषित किया जाय | किसी शिशु में कम उम्र के कारण समझ की कमी होती है अर्थात वह अपने कार्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ होता है | इसलिए उसे आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा जाता है | संहिता की धारा 82 तथा 83 ऐसे शिशुओं के दायित्व के सम्बन्ध में उपबन्ध करती है | धारा 82 में उपबंधित मुक्ति जहाँ पूर्ण मुक्ति है वहीँ धारा 83 में यह सशर्त होती है |
संहिता की धारा 82 के अनुसार, "कोई बात अपराध नही है जो सात वर्ष से कम आयु के शिशु के द्वारा की जाती है |"
इस प्रकार, भारत में सात वर्ष से कम आयु के शिशुओं को 'अपराध करने में अक्षम' कहा जाता है, अतः उन्हें किसी अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता | उनके खिलाफ किए गए अभियोगों से मुक्ति हेतु उन्हें मात्र यह साबित करना होता है कि उनकी आयु सात वर्ष से कम है |
संहिता की धारा 83 के अनुसार, कोई बात अपराध नही है जो सात वर्ष से ऊपर और बारह वर्ष से कम आयु के ऐसे शिशुओं द्वारा की जाती है जिसकी समझ इतनी परिपक्व नही हुई है कि वह उस अवसर पर अपने आचरण कि प्रकृति और परिणामों का निर्णय कर सके |
आवश्यक तत्व - धारा 83 के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं --
- सात वर्ष से अधिक एवं बारह वर्ष से कम के एक बच्चे द्वारा किया गया एक कार्य |
- शिशु ने अपने आचरण की प्रकृति तथा परिणाम को समझने के लिए पर्याप्त क्षमता न अर्जित कर ली हो |
- अक्षमता कार्य सम्पादित होते समय अस्तित्व में हो |
अब्दुल सत्तार के मामले में 1948 Cr. L.J. 336 में बारह वर्ष से कम आयु के अभियुक्तगणों ने एक दुकान का ताला तोड़कर उसमे दालों की चोरी की | उन्हें इस आधार पर दोषी ठहराया कि वे अपने आचरण की प्रकति और परिणामों का निर्णय कर सकते थे |
नगा टैन कैंग 1917 Cr. L.J. 943 के मामले में बारह वर्ष से कम आयु के बालक को बलात्संग के प्रयत्न का दोषी ठहराया गया |
हीरालाल बनाम बिहार राज्य 1977 Cr. L.J. 1921, S.C. के मामले में एक लड़के ने एक आपराधिक कार्य में भाग लिया और मृतक पर प्राण घातक हमला करने में एक धारदार अस्त्र का प्रयोग किया | उस लड़के की मंदबुद्धि होने के कारण अपने कार्यों कि समुचित समझ ना होने के साक्ष्य के अभाव में धारा 83 के अन्तर्गत प्रतिरक्षा प्रदान नहीं की गई |
समझ की प्रौढ़ता--अभियुक्त में समझ कि प्रौढ़ता इस तथ्य से निर्धारित की जायेगी कि उसने कार्य सम्पादित करने के पश्चात् अपने हथियारों को तथा स्वयं को छिपाने का प्रयास किया था या नहीं |
मुसम्मात एकोना, (1864) W.R.क्री.43 के मामले में अभ्युक्त जो लगभग 10 वर्ष की आयु कि थी, हत्या की पूर्व रात्रि में अपनी सास के साथ में सोयी थी | उसका पति जो लगभग 19 वर्ष कि आयु का था , अपने भाई के साथ उसी ईमारत के दूसरे कमरे में सोया था | घटना वाली सुबह, सास ने अभियुक्त को जगाया कि वह जाकर घर के कामकाज को निपटा दे | इसके कुछ ही समय पश्चात् अभियुक्त को घर में भागते हुए देखा गया और उसके पति को गमले में लगी चोट द्वारा बुरी तरह घायल पाया गया | अभियुक्त ने अपने आपको एक खेत में छिपा रखा था और दोपहर के बाद उसे खोज निकाला गया | न्यायालय ने उसे अपराध के लिए सक्षम पाया |अतः उसे दोषी सिद्ध किया गया |
उल्ला महापात्र, (1883) 6 Mad. 373 के मामले में अभियुक्त जो 11 वर्ष से अधिक तथा 12 वर्ष से कम आयु का था, ने एक चाक़ू उठाकर मृतक को टुकड़े- टुकड़े में काट देने कि धमकी देने लगा तथा यथार्ततः उसने उसकी हत्या भी कर दी | यह निर्णय हुआ कि अभियुक्त के कार्य से केवल एक निर्णय निकाला जा सकता है और वह यह कि उसने वही किया जो वह करना चाहता था तथा पूरी घटना के दौरान उसे ज्ञात था कि चाक़ू का मात्र एक प्रहार उसे आशय की पूर्ति कर देगा अतः उसे सुधार गृह में 5 वर्ष के लिए भेज दिया गया |
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही धाराओं में 7 वर्ष के शिशुओं के दायित्व के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं किया गया है , परन्तु न्यायाधीश तथा विद्वान इस सम्बन्ध में एक मत है कि 'सात साल से कम' शब्दावली से तात्पर्य 'सात साल तक ' है , क्योंकि दण्ड विधि का यह एक मान्य सिद्धान्त है कि संदेह का लाभ सदा अभियुक्त को ही दिया जाना चाहिए |
उद्देश्य--कृष्ण भगवान बनाम स्टेट ऑफ बिहार, A.I.R. 1989, पटना 217 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 82 तथा धारा 83 के प्रावधान सुधारात्मक प्रवृत्ति के हैं , दण्डात्मक प्रवृत्ति के नहीं | इनका मुख्य उद्देश्य शिशुओं को सुधारने का अवसर प्रदान करना है |
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