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प्रश्न - निम्नलिखित संवैधानिक संरक्षणों पर टिप्पड़ी लिखिए : 1. कार्योत्तर विधि से संरक्षण 2. दोहरे दण्ड से संरक्षण 3. आत्म अभिशंसन से संरक्षण

 1. कार्योत्तर विधि से संरक्षण 

(Protection from ex-post facto law )

        अनु० 20 (1) उपबंधित करता है कि कोई भी व्यक्ति ऐसे विधि का उल्लंघन के लिए जो अपराध के रूप में अभियोग लगाये गए कार्य को करते समय लागू न हो, न तो दोष सिद्धि किया जायेगा और न उसे दण्ड से अधिक दण्ड दिया जायेगा , जो उसे कार्य को करने के समय लागू विधि के अंतर्गत दिया जा सकता रहा हो | 

Article-20

        अस्तु यदि कोई आपराधिक कृत्य करने के बाद उसी अपराध के सम्बन्ध में कोई कानून बनाया जाता है, तो ऐसे कानून को कार्योत्तर विधि कहते हैं | इस कार्योत्तर विधि के अंतर्गत, यदि किसी ऐसे कृत्य को अपराध घोषित किया जाता है, जो कृत्य करने के समय लागू विधि के अधीन अपराध नहीं था अथवा उस समय लागू एसी विधि से अधिक दण्ड दिए जाने के लिए ऐसी कार्योत्तर विधि के अंतर्गत व्यवस्था की जाती है, तो कोई भी व्यक्ति, इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रदत्त, संवैधानिक संरक्षण की मांग उस समय कर सकता है, जब उसे ऐसी कार्योत्तर विधि के अधीन, किसी ऐसी पूर्व कृत्य के लिए, जो कृत्य करने के समय लागू विधि के अधीन अप्रध्नाही था, दोषसिद्ध किया जाये, या ऐसी पूर्व विधि में उपबंधित दण्ड से अधिक दण्ड दिया जाये |

        उपर्युक्त संरक्षण केवल आपराधिक कार्यो के सम्बन्ध में न किक दीवानी कार्यों के सम्बन्ध में, भूतलक्षी प्रभाव वाली विधियों के विरुद्ध प्रदान किया गया है |

        उदाहरण के लिए --कर सम्बन्धी विधियाँ भूतलक्षी प्रभाव से कर लगाने के लिए उपबंध कर सकती है | टी० वरय बनाम हेनरी एन, [(1983) 1 SCC 177 ] के वाद में उच्च्तम न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त केन्द्रीय संशोधन अधिनियम का लाभ उठा सकता है | इस कारण उसका दण्ड अपने - आप कम हो जायेगा | 


        अमेरिका संविधान भी भूतलक्षी प्रभाव वाली दण्ड-विधियाँ बनाने का प्रतिषेध करता है और साथ ही ऐसी विधि के अधीन परिस्खन किया जाना भी वर्जित है और इस दृष्टि से वह भारतीय संविधान सेव कहीं अधिक विस्तृत उपबंध करता है क्योंकि भारतीय संविधान का अनु० 20 (1) भूतलक्षी प्रभाव वाली विधियों  के अधीन केवल दोष सिद्धि किये जाने को, न कि परिक्षण किये जाने को वर्जित करता है | किसी पूर्व विधि में लागू विधि से भिन्न प्रक्रिया भी कार्योत्तर विधि से भिन्न प्रक्रिया भी कार्योत्तर विधि  में विहित की जा सकती है |

        अनु० 20 (1) ' कार्योत्तर विधि मे किसी पूर्व- प्रवृत्त विधि में निर्धारित की गई सजा की मात्रा को भी बढ़ाये जाने का निषेध करता है | 

        1. केदार नाथ बनाम वेस्ट बंगाल राज्य (AIR 1953 SC 404 ) के मामले में अपीलार्थी अभियुक्त ने सन 1947 में जो अपराध किया था, उसके लिए उस समय प्रवृत्त विधि में की गई सजा को, सं 1949 में उस विधि में संधोधन करके बाधा दिया गया था | उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सन 1947 में किये गयुए परध के लिए सन 1949 में सजा नहीं बधाई जा सकती है और बढे हुए जुर्माने को पूर्व प्रदत्त विओधि के अबुसर घटने का आदेश दिया |

        2. रतन लाल बनाम पंजाब राज्य (AIR 1965 SC 144 ) के मामले में अपीलार्थी अभ्युक्त, एक 16 वर्षीय लड़के पर घर में अनाधिकार प्रवेश करके एक 7 वर्षीय बालिका का शीलभंग करने का अभियोग चलाया गया और अधीनस्थ न्यायालय द्वारा उसे 6 माह के कठोर कारावास की सजा दी गई और जुरमाना भी किया गया | अपील के दौरान दि प्रोबिशन आफेंदर्स एक्ट, 1958 पारित किया , जिसके अंतर्गत 20 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को कारावास का दण्ड देने का अधिकार निषेध किया गया था | उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अभियुक्त इस अधिनियम का लाभ उठा सकता है | ; अतः उसकी सजा कम कर दी गई |

        3. टी० वरय बनाम हेनरी एन हो [ (1983 ) SCC 177 ] के मामले में प्रिवेंसन आफ फ़ूड अडलट्रेशन एक्ट, 1973 की धारा 16 (1) (a) के अधीन प्रत्यर्थी के विरुद्ध 1975 में अपराध करने के लिए एक परिवाद दाखिल किया गया | उस समय प्रवृत विधि के अधीन उक्त अपराध के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान था , किन्तु 1976 में उक्त अधिनियम में संशोधन करके दण्ड को घटाकर 3 वर्ष का कारावास का प्रावधान किया गया | उक्त मामले में यह निर्णय दिया कि अभियुक्त उक्त लाभकारी उपबंध का लाभ पाने का हकदार है |

2. दोहरे दण्ड से संरक्षण 
(Protection from Double Jeopardy )

        यह संवैधानिक संरक्षण अनु० 20 (2) के द्वारा सभी व्यक्तियों, नागरिक या अनागरिक को प्रदान किया गया | अनु० 20 (2) यह उपबंधित करता है कि कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अबियोजित और दण्डित नहीं किया जायगा | 

        यह संरक्षण इंग्लॅण्ड के कामन लॉ के सिद्धांत 'Nemo debt vis vexari ' पर आधारित है, जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दुबारा अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा | इसी प्रकार अमेरिका संविधान भी उपबंधित करता है, कि किसिस व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए उसके जेवण उया किसी अंग को दुबारा खतरे में नहीं डाला जायेगा |

        किन्तु भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त उपर्युक्त संरक्षण इन दोनों में  प्रदत्त संरक्षण की अपेक्षा अधिक सीमित है | इं दोनों देशो में यदि किसी अपराध को एक बार परिक्षण किया जा चूका है, तो बहले ही उसे ऐसे परिक्षण से विमुक्त कर दिया गया हो, दुबारा उसी अपराध के लिए उसका परिक्षण नहीं किया जायगा | भारत में अभियोजित और दण्डित दोनों किये जाने की शर्ते लगाई गई है अर्थात अपराधी को अभियोजित भी किया गया हो और परिक्षण के फलस्वरूप दण्डित भी किया गया हो, तो दुबारा उसी अपराध के लिए उसका परिक्षण वर्जित नहीं है | ओ ० पी० धैया बनाम भारत संघ, [(2003) 1 SCC 122 ] के मामले में निर्धारित किया गया कि जहाँ अभियुक को न तो दोषमुक्ति दी गई हो और न ही दोष सिद्धि, तब वहां ऐसे अभियुक्त को दोबारा परिक्षण हो सकता है, यह दोहरा दण्ड से संरक्षित नहीं होगा |

अनु० 20 (2) की आवश्यक शर्ते 

        अनु० 20 (2) के संरक्षण के लिए 3 आवश्यक शर्ते हैं --

        1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवश्यक है |

        2. अभियोजन या कार्यवाही किसी न्यायालय या न्यायिक न्यायाधिकरण के समक्ष हो और न्यायिक प्रकृति की रही हो |

        3. अभियोजन किसिस विधि विहित अपराध के सम्बन्ध में हो जिसके लिए दण्ड की व्यवस्था हो |

        1. मकबूल हसन बनाम बम्बई राज्य (AIR 1935 SC 325 ) के मामले में अपीलार्थी को भारत में तस्करी करके कुछ सोना ले आने पर कस्टम अधिकारियो ने सी कस्टम एक्ट के अंतर्गत उसका सोना भी जब्त कर लिया और बाद में उसे फारेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट के अंतर्गत बिना अनुमति भारत में सोना ले आने के अपराध के लिए अभियोजित किया गया | अपीलार्थी ने उसे उसी अपराध के लिए इस आधार पर दुबारा अभियोजन मानकर आपत्ति की कि एक बार कस्टम अधिकारियों ने उसका सोना जब्त करके उसको अभियोजित और दण्डित किया था | 

        उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सी कस्टम एक्ट के अंतर्गत सोना जब्ती की कार्यवाही न्यायिक प्रकृति की नहीं है और न ही कस्टम अधिकारी न्यायालय या न्यायिक अभिकरण है | इसलिए फारेन एक्स्चंज रेगुलेशन के अधीन अभिय्टिजन वर्जित नही है | 

        2. वेंकट रमण बनाम भारत संघ, (AIR 1954 SC 375 ) के मामले में याचिकाकर्त्ता को पब्लिक सर्विसेज इन्क्वायारीज एक्ट, 1961 के अंतर्गत एक विभागीय जाँच के फलस्वरूप नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में उसे भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत भ्रष्टाचार के अपराध के लिए दांडिक न्यायालय में अभियोजित किया गया था | उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विभागीय जाँच और उसके विभागीय दण्ड न्यायिक कार्यवाही नहीं थी | अतः दांडिक न्यायालय में उसका अभियोजन असंवैधानिक नहीं है |

इसी प्रकार यदि दूसरी कार्यवाही किसी पहली कार्यवाही के लगाव में है, तो उसे अनु० 20 (2) के उपबंध लागू नहीं होंगे |

3. आत्म अभिशासन से संरक्षण 

        यह संवैधानि संरक्षण अनु० 20 (3) के अंतर्गत सभी व्यक्तियो, नागरिक या अनागरिक, दोनों को प्रदान किया गया है | अनु० 20 (3) उपबंधित करता है, कि किसिस भी व्यक्ति को, जो किसी अपराध का भियुक्त हो, स्वयं अपने विरुद्ध एक गवाह बनने के लिए (अर्थात गवाही देने के लिए ) बाध्य नहीं किया जायेगा | 

        इस संरक्षण में आंग्ल और अमेरिकी अपराध विधि का यह सामान्य नियम शामिल है,  कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसे अपराधी नहीं सिद्ध कर दिया जाता है | अपराधी के अ[प्राध को सिद्ध करने का भार अभियोजक पर होता है, स्वयं अपराधी को अपराध कबूल करने के लिए किसी प्रकार डालकर बाध्य नही किया जा सकता है, स्वेच्छा से यदि वह चाहे तो ऐसा कर सकता है | 

        किसी अपराध का अभियुक्त होना :--यह वाक्यांश यह संकेत करता है, कि यह संरक्षण केवल दांडिक कार्यवाहियों में ही, न कि किसी दीवानी कार्यवाही में, प्राप्त है | भारतीय संविधान के अंतर्गत यह संरक्षण केवल किसी अपराधी के अभियुक्त को ही प्राप्त है, गवाहों को नहीं, परन्तु अमेरिका और इंग्लॅण्ड में यह संरक्षण अभियुक्त के साथ- साथ गवाहों को भी प्रदान किया गया है | 

अनु० 20 (3) की आवश्यक शर्ते 

        एम० पी० शर्मा बनाम सतीश चन्द्र (AIR 1954 SC 300 )के मामले में, जो इस विषय पर हमला था, उच्चतम न्यायालौय ने इस संरक्षण के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विचार करते हुए उसे प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित तीन शर्तों को पूरा करना आवश्यक बताया था |

        1. व्यक्ति को अपराध में अभियुक्त होना चाहिए --अभियुक्त होने के लिए, न्यायालय के अनुसार, यह आवश्यक नहीं है कि न्यायालय के सामने ही जाँच या परिक्षण शुरू किया गया हो | ऐसा कोई भी व्यक्ति इस संरक्षण का दावा कर सकता है, जिसका नाम पुलिस को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (F.I.R.) में दर्ज हो जिसके विरुद्ध मजिस्ट्रेट ने जाँच का आदेश दिया हो | 

        2. अपने विरुद्ध साक्ष्य देना -- एम० पी० शर्मा बनाम सतीश चन्द्र (उपरोक्त )ने न्यायालय में गवाही देने में सभी प्रकार के साक्ष्य को शामिल किया था | जैसे मौखिक, दस्तावेजो या अन्य तरीकों के साक्ष्य | इस व्याख्या के अनुसार अपराधी के अंगूठे या अंगुलियों के निशान या हस्ताक्षर भी उसका साक्ष्य (गवाही ) में शामिल हो सकते है |

        परन्तु बम्बई राज्य बनाम काठी कालू ओघड़ (AIR 1961 SC 1808 ) केमामले में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त मत को अस्वीकार कर दिया और कहा कि गवाह का अर्थ साक्ष्य प्राप्त करना नहीं है | आत्म- अभिशंसन का अर्थ केवल एसी सुचनाए देना है जो साक्षी के वैयक्तिक ज्ञान पर आधारित है, न कि यांत्रिक क्रिया पर आधारित साक्ष्य, या कोई ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत करना जो विवाद ग्रस्त विषय पर कुछ प्रकाश डालता हो | अंगूठे का निशान, या हस्ताक्षर के नमूना व्यक्तिगत बयाँ नहीं है , ये वस्तुए केवल तुलना के उद्देश्य से ली जाती है  | इसी प्रकार अभियुक्त की सुचना के आधार पर खोज के फलस्वरुप जब्त की गई वस्तुए या अभियुक्त का चित्र या उसकी अंगुलियों के निशान, या हस्ताक्षर के नमूने आदि लेना अनु० 20 (3) के अंतर्गत वर्जित नहीं है | यह अनुच्छेद केवल अभियुक्त को उसके विरुद्ध लगाये गये अभियोग के सम्बन्ध में अपने व्यक्तिगत ज्ञान से कुछ कहने के लिए बाध्य करने के लिए वर्जित करता है | 

        इसी प्रकार, राज्य बनाम कृष्ण मोहन, ए० आइ० आर० (2008) 368 के वाद में अवधारित किया गया है की किसिस अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के अंगूठे का निशान या हस्ताक्षर लेना अनु० 20 (3) का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि उसे उसके हस्ताक्षर से मिलन करने क्वे लिया जाता है | उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाता | 

        3. उसने किसी दबाव के फलस्वरूप अपने विरुद्ध गवाही दिया हो --कोई भी अभियुक्त पश्चाताप करने के लिए स्वेच्छा से अपना अपराध कबूल कर सकता है, किन्तु इसके लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता है या कोई धमकी या कोई लालच नहीं दी जा सकती | यदि दबाव डालकर उसे पाने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य दिया गया है, तो यह संरक्षण उसे प्रापर होगा | 

        अब्दुल गनी बनाम वी० वी० गिरि (AIR 1970 SC 2017 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त के,टेपरिकार्डर पर टेप किये गए बयां को उसके विरुद्ध साक्ष्य में स्वीकार किया, क्योंकि वे बिना किसी दबाव के टेप किये गए थे, यद्यपि इस बारे में उसे कोई ज्ञान नहीं था | 

        नन्दिनी सतपथी बनाम पी० एल० दानी (AIR 1978 SC 1025 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह संरक्षण केवल न्यायालय में नहीं है, बल्कि उस समाया भी प्राप्त होता  है, जब पुलिस अभियुक से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन पूछ- ताछ करती है | पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे गए मात्र सामान्य प्रश्नों से ही किसी दबाव का गठन नहीं होता है, किन्तु उन प्रश्नों की प्रकृति में अपने विरुद्ध बयां देने (आत्म अभिसंशन ) का तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, तो अभियुक्त को यह संरक्षण प्राप्त होगा | एस प्रकार यदि सम्बंधित प्रश्नों का उत्तर देने से अभियुक्त के अपराध के अपराध करने का अनुमान या आशंका होती है, या किसी अन्य मामले में उसके अपराध का अनुमान किया जा सकता  है, चाहे ऐसा अनुमान आसक्त हो या आसन्न हो, तो आत्म अभिसंशन का तत्व उसमे निहित है और अभिक्युक्त को ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है | 

        सेलवी बनाम कर्णाटक राज्य, (ए० आइ० आर० 2010 एस० सी० 1974 ) में उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि अपराधियों की सहमति के बिना अपराध को पता लगाने के लिए उनका नारको, पलिग्रफ और ब्रेनफिंगर प्रिंटिंग कसौटी अनु० 20 (3) और अनु० 20 (3) तथा 21 का उल्लंघन करती है | नारको एनालेसिस कसौटी में अपराधियों के शरीर में एक दवा खिलाई जाती है जो शल्य चिकित्सा के समय एनस्थीसियो के बहती उसे मधोस कर देती है और पलिग्रफ और ब्रेन फिंगर प्रिंट में उसकी शरीर में विद्युत् तरंगे दौड़ाई जाती है | अपराधियों का कहना है कि उपयुक्त तरीके आत्म अभिसंशन है और अनु० 20 (3) के अधीन वर्जित है | न्यायालय ने उनके इस तर्क को स्वीकार किया और निर्णय दिया कि उक्त तरीके अवैध है | 



Source: CLA,

LLB. 3 YEAR PROGRAMME 1st SEMESTER 2nd PAPER

CONSTITUTIONAL LAW - I

DR.RAM MANOHAR LOHIA AWADH UNIVERSITY, AYODHYA

DR. RMALU, AYODHYA

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